इस दो अच्छर के शब्द में संसार भरे की ऊँच नीच देख पड़ती है। इन थोड़े से बालों में उस परम गुणी ने न जाने कितनी कारीगरी खर्च की है, साधारण बुद्धि वाले बाल भर नहीं समझ सकते। सांसारिक संबंध में देखिए तो पुरुष के मुख की शोभा यही है। मकुना आदमी का ऐसा मुँह किस काम का? बहुतेरे वैष्णव महाशय सदा मुच्छ मुड़ाए रहते हैं और कह देते हैं कि मुच्छ में छू जाने से पानी मदिरा समान हो जाता है। यह बात सच होती तो हमारे नव शिक्षितों का बहुत सा रुपया होटल जाने से बचता। हम तो जानते हैं कोई भी उक्त वैष्णवों की समझ का होता तो यह तरह-तरह की निम्बूतरास मुच्छैं, वृंदावनी मुच्छैं, गुलमुच्छैं, लाल-लाल, काली-काली, भूरी-भूरी, उजली मुच्छै काहे को देखने में आतीं। यद्यपि सबके आगे मुच्छ ऐंठना अच्छा नहीं, परमेश्वर न करे किसी को मुच्छै नवाँनी पड़ें। तुरंत बनवाए रहना, सदा दगहा (मुरदा फूँकने वाला) की सी सूरत रखना भी अशोभित होता है। मुच्छ का बाल मुच्छ ही का बाल है। यह अन्मोल है। आगे लाखों करोड़ों रुपये में मुच्छ गिरों रक्खी जाती थी। मुच्छ नहीं निकलती तब तक पुरु का नाम पुरुष नहीं होता - "नेक अबै मस भींजन देहु दिना दस के अलबेले लला हौ।" सहृदयता का चिह्न, समझदार (बुलूगत) की निशानी भी यही है "ह्यां इनके रस भींजत से दृग ह्वा उनके मस भींजत आबैं।" इज्जत भी इन्हीं से है। मर्दों की सब जगह मुच्छ खड़ी रहती है। सबको इसका ख्याल भी होता है। किसी की दाढ़ी में हाथ डाला प्रसन्न हो गया; जो कहीं मुच्द का नाम लिया, देखो कैसा मियान से बाहर होता है। जिस की इन की इज्जत पर गैरत न हुई वुह निंदनीय है। "काहे मुछई न मानोगे?"-सुन के कोई ऐसा ही नपुंसक होगा जो लड़ने न लगे। मुच्छैं लगा के नीच ऊँच काम करते बिडंवना का डर होता है। शेख जी खेलते हैं लड़कों में, यह तो बंदर है, वह मुछंदर है। लोगों ने सुंदर व्यक्ति की भौंह की धनुष से उपमा दी है। हमारी समझ में मुच्छ को भी धनुष का खड़ा कहना चाहिए। पुरानी लकीर पर फकीर बुड्ढी मुच्छों वाले पुराने खूँसट यद्यपि कुछ नहीं हैं, आज मरे कल दूसरा दिन, परंतु उनके डर के मारे न हमारे इंलाइटेंड जेंटिलमेन खुल खेजने पावैं, न देशाहितैशीगण समाज संशोधन कर सकैं। उनकी मर्जी पर न चल के किरिष्टान कौन बने। मुच्छ से पारलौकिक संबंध भी है। कोई बड़ा बूढ़ा मर जाता है तो उसकी ऊर्द्ध दैहिक क्रिया बनवानी पड़ती है। कौन जाने इसी मूल पर कुशा को बिराटलोम लिखा गया हो। पितृकार्य्य में कुशा भी काटनी पड़ती है। तैसी ही सर्वोत्तम लोम भी छेदन करना पड़ता है। कदाचित् यही "जहाँ ब्राह्मण वहाँ नाऊ" वाली कहावत का भी मूल हो। उनकी जीविका कुशा, इनकी जीविका केश। परमेश्वर, हमारे प्यारे बालकों को मुच्छै मुड़ाने का दिन कभी न दिखाइयो। प्रयागराज में जाके मुच्छैं बनवाना भी धर्म का एक अंग समझा जाता है। परंतु हमारे प्रेम शास्त्र के अनुकूल उससे भी कोटि गुणा पुण्य नाट्यशाला में स्त्री भेष धारणार्थ मुच्छैं मुँड़ाने से होता है। स्त्रियों के मुच्छ का होना अपलक्षण भी है। हिजड़ों को मुच्छ का जगना अखरता भी है। हमारे कागभुशंड बालोपासक लंपटदास बाबा के अनुयाइयों की राल टपकती है जब किसी अजातस्मश्रु सचिक्कण मुख का दर्शन होता है। वाह री मुच्छ! तेरी भी अकथ कथा है। न भला कहते बनै न बुरा कहते बनै। तुझ पर भी 'किसी को बैंगन बावले किसी को बैंगन पथ्य की कहावत सार्थक होती है। लोग दाढ़ी को भी मर्द की पहिचान बतलाते हैं। पर कहाँ उद्धगामी केश केश कहाँ अधोमार्गी। मुच्छ के आगे सब तुच्छ है। यह न हो तो वुह क्या सोहै। बहुतेरे रसिकमना वृद्ध जन खिजाब लगा के मुँह काला करते हैं। वह नहीं समझते कि मुच्द का एक यह रंग है जिस्की बदौलत गाँव भर नाती बन जाता है। बाजे मायाजालग्रस्त बुड्ढों को नाती से मुच्छैं नुचवाते बड़ा सुख मिलता है। पुपले-पुपले मुँह में तमाखू भरे हो हो हो हो, अरे छोड़ भाई, कहते हुए कैसे "पुलक प्रफुल्लित पूरित गाता' देख पड़ते हैं। कभी किसी बूढ़े कनवजिया को सेतुआ पीते देखा है? मुच्छों से उरौती टपकती है, हहहह! सब तो हुवा पर सबकी मुच्छैं हैं कि - ? मुच्छ का सबिस्तर वर्णन उसी से होगा जो बाल की खाल निकाल सके। हमारे पूज्यपाद पंडित भाई गजराज प्रसाद जी ने यह वचन कैसा नित्य स्मरणीय कहा है कि "गालफुलाउब मोछ मिरोरब एकौ काम न आई, तीनि बरे जब हुचु-हुचु करिकै रहि जैहौ मुँह बाई।" श्री गोस्वामीजी का भी सिद्धांत है कि "पशू गढ़ंते नर भए भूलि सींग अरु पूँछ। तुलसी हरि की भगति बिन धिक दाढ़ी धिक मूंछ।" आज कल भारतवासियों की दुर्दशा भी इसी से हो रही है कि यह निरे "हाथ पाय के आलसी मुँहमां मुच्छें जायं।" धन बल विद्या सब तो स्वाहा हो गई फिर भी एका करने में कमर नहीं बाँधते। भाइयो! भ्रातृद्रोह से भागो। यह बहुत बुरा है। मुच्छैं बिन लेगा। प्यारे पाठक, खुश तो न होगे, कैसा बात का बतंगर कर दिया।
------प्रतापनारायण मिश्र
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Wednesday, December 23, 2015
मूँछ
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