ईश्वर प्राप्ति हेतु शरणागति ही वो ब्रह्मास्त्र है जिसके बिना जीव ईश्वर प्राप्ति का अपना लक्ष्य नहीं पा सकता है। हमें भगवान की कथा उनकी लीलायें पढ़नी हैं, सुननी हैं, सुनानी है। जीव या तो भगवान की शरण में जा सकता है या फिर त्रिगुणात्मक माया प्रकृति की शरण ग्रहण करनी होगी दोनों की शरणागति एक साथ नहीं हो सकती। वर्तमान में हम 100 प्रतिशत त्रिगुणात्मक माया प्रकृति की ही शरण ग्रहण किए हुए हैं । अब हमें इस त्रिगुणात्मक माया प्रकृति की शरण छोड़कर परमात्मा की शरण में जाना है इसमें सर्वप्रथम हमें अपने आप को जानने का प्रयास करना है क्योंकि जब तक हम इस स्थूल शरीर को ही अपना स्वरूप मानते रहेगें तब तक परमात्मा की ओर चलना असम्भव है। हम अपने आप को जब तक यह मानते रहेंगे कि यह भौतिक शरीर ही हमारा स्वरूप है, तब तक शरीर और संसार की कामना उत्पन्न होती रहेगीं और ये एक ऐसा रोग है जिसका इलाज केवल परमात्मा के पास ही है, संसार में इसका इलाज कहीं भी नहीं है, एक कामना पूर्ण होते ही दूसरी कामना तत्काल उत्पन्न हो जायगी इसी को माया कहते हैं, जीवात्मा अनादिकाल से इसी मायाजाल में फंसा हुआ है। अब इन कामनाऔ को छोड़ना होगा।
" बहुत तड़फाया है इन कामनाओं ने हमको अब इन कामनाऔ को तड़फता छोड़ दो "
हम जिसके बारे में अधिक सोचते हैं उसी से हमारा लगाव होना प्रारम्भ होजाता है, संसार में भी ऐसा ही होता है। भगवान श्री राम ने कहा है कि -
मम गुन गावत पुलक शरीरा। गद गद गिरा नैन बहे नीरा।।
भगवान कहते हैं कि मेरे गुण गाते समय भक्त का हृदय रुंध जाये, वाणी गद गद हो जाय और नेत्रो से अश्रुधारा बह निकले वही भक्त मुझे प्रिय है। भगवान कहते हैं कि-
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काड्ंक्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान यः स मे प्रियः।।
भगवान कहते हैं, जो न तो कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभाशुभ सबका त्यागी है वही मेरा भक्त मुझे प्रिय है।
" बहुत तड़फाया है इन कामनाओं ने हमको अब इन कामनाऔ को तड़फता छोड़ दो "
हम जिसके बारे में अधिक सोचते हैं उसी से हमारा लगाव होना प्रारम्भ होजाता है, संसार में भी ऐसा ही होता है। भगवान श्री राम ने कहा है कि -
मम गुन गावत पुलक शरीरा। गद गद गिरा नैन बहे नीरा।।
भगवान कहते हैं कि मेरे गुण गाते समय भक्त का हृदय रुंध जाये, वाणी गद गद हो जाय और नेत्रो से अश्रुधारा बह निकले वही भक्त मुझे प्रिय है। भगवान कहते हैं कि-
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काड्ंक्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान यः स मे प्रियः।।
भगवान कहते हैं, जो न तो कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभाशुभ सबका त्यागी है वही मेरा भक्त मुझे प्रिय है।
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