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Wednesday, December 23, 2015

आँख का अचरज भरा मायाजाल

एक दिन आँख ने कहा, "इन घाटियों के उस पार नीले कोहरे में लिपटा एक पहाड़ मुझे नजर आ रहा है। क्या यह सुन्दर नहीं है?"

कान ने सुना और कुछ देर कान-लगाकर सुनने के बाद बोला, "पहाड़ कहाँ है? मुझे तो उसकी आवाज़ नहीं आ रही।"

फिर हाथ बोला, "इसे महसूस करने या छूने की मेरी कोशिशें बेकार जा रही हैं। मुझे कोई पहाड़ नहीं मिल रहा।"

नाक ने कहा, "मुझे तो किसी पहाड़ की गंध नहीं आ रही।"

तब आँख दूसरी ओर घूम गई। वे सब के सब आँख के अचरज भरे मायाजाल पर बात करने लगे। बोले, "आँख के साथ कुछ घपला जरूर है।"

मूँछ



इस दो अच्‍छर के शब्‍द में संसार भरे की ऊँच नीच देख पड़ती है। इन थोड़े से बालों में उस परम गुणी ने न जाने कितनी कारीगरी खर्च की है, साधारण बुद्धि वाले बाल भर नहीं समझ सकते। सांसारिक संबंध में देखिए तो पुरुष के मुख की शोभा यही है। मकुना आदमी का ऐसा मुँह किस काम का? बहुतेरे वैष्‍णव महाशय सदा मुच्‍छ मुड़ाए रहते हैं और कह देते हैं कि मुच्‍छ में छू जाने से पानी मदिरा समान हो जाता है। यह बात सच होती तो हमारे नव शिक्षितों का बहुत सा रुपया होटल जाने से बचता। हम तो जानते हैं कोई भी उक्‍त वैष्‍णवों की समझ का होता तो यह तरह-तरह की निम्‍बूतरास मुच्‍छैं, वृंदावनी मुच्‍छैं, गुलमुच्‍छैं, लाल-लाल, काली-काली, भूरी-भूरी, उजली मुच्‍छै काहे को देखने में आतीं। यद्यपि सबके आगे मुच्‍छ ऐंठना अच्‍छा नहीं, परमेश्‍वर न करे किसी को मुच्‍छै नवाँनी पड़ें। तुरंत बनवाए रहना, सदा दगहा (मुरदा फूँकने वाला) की सी सूरत रखना भी अशोभित होता है। मुच्‍छ का बाल मुच्‍छ ही का बाल है। यह अन्‍मोल है। आगे लाखों करोड़ों रुपये में मुच्‍छ गिरों रक्‍खी जाती थी। मुच्‍छ नहीं निकलती तब तक पुरु का नाम पुरुष नहीं होता - "नेक अबै मस भींजन देहु दिना दस के अलबेले लला हौ।" सहृदयता का चिह्न, समझदार (बुलूगत) की निशानी भी यही है "ह्यां इनके रस भींजत से दृग ह्वा उनके मस भींजत आबैं।" इज्‍जत भी इन्‍हीं से है। मर्दों की सब जगह मुच्‍छ खड़ी रहती है। सबको इसका ख्‍याल भी होता है। किसी की दाढ़ी में हाथ डाला प्रसन्‍न हो गया; जो कहीं मुच्‍द का नाम लिया, देखो कैसा मियान से बाहर होता है। जिस की इन की इज्‍जत पर गैरत न हुई वुह निंदनीय है। "काहे मुछई न मानोगे?"-सुन के कोई ऐसा ही नपुंसक होगा जो लड़ने न लगे। मुच्‍छैं लगा के नीच ऊँच काम करते बिडंवना का डर होता है। शेख जी खेलते हैं लड़कों में, यह तो बंदर है, वह मुछंदर है। लोगों ने सुंदर व्‍यक्ति की भौंह की धनुष से उपमा दी है। हमारी समझ में मुच्‍छ को भी धनुष का खड़ा कहना चाहिए। पुरानी लकीर पर फकीर बुड्ढी मुच्‍छों वाले पुराने खूँसट यद्यपि कुछ नहीं हैं, आज मरे कल दूसरा दिन, परंतु उनके डर के मारे न हमारे इंलाइटेंड जेंटिलमेन खुल खेजने पावैं, न देशाहितैशीगण समाज संशोधन कर सकैं। उनकी मर्जी पर न चल के किरिष्‍टान कौन बने। मुच्‍छ से पारलौकिक संबंध भी है। कोई बड़ा बूढ़ा मर जाता है तो उसकी ऊर्द्ध दैहिक क्रिया बनवानी पड़ती है। कौन जाने इसी मूल पर कुशा को बिराटलोम लिखा गया हो। पितृकार्य्य में कुशा भी काटनी पड़ती है। तैसी ही सर्वोत्तम लोम भी छेदन करना पड़ता है। कदाचित् यही "जहाँ ब्राह्मण वहाँ नाऊ" वाली कहावत का भी मूल हो। उनकी जीविका कुशा, इनकी जीविका केश। परमेश्‍वर, हमारे प्‍यारे बालकों को मुच्‍छै मुड़ाने का दिन कभी न दिखाइयो। प्रयागराज में जाके मुच्‍छैं बनवाना भी धर्म का एक अंग समझा जाता है। परंतु हमारे प्रेम शास्‍त्र के अनुकूल उससे भी कोटि गुणा पुण्‍य नाट्यशाला में स्‍त्री भेष धारणार्थ मुच्‍छैं मुँड़ाने से होता है। स्त्रियों के मुच्‍छ का होना अपलक्षण भी है। हिजड़ों को मुच्‍छ का जगना अखरता भी है। हमारे कागभुशंड बालोपासक लंपटदास बाबा के अनुयाइयों की राल टपकती है जब किसी अजातस्‍मश्रु सचिक्‍कण मुख का दर्शन होता है। वाह री मुच्‍छ! तेरी भी अकथ कथा है। न भला कहते बनै न बुरा कहते बनै। तुझ पर भी 'किसी को बैंगन बावले किसी को बैंगन पथ्‍य की कहावत सार्थक होती है। लोग दाढ़ी को भी मर्द की पहिचान बतलाते हैं। पर कहाँ उद्धगामी केश केश कहाँ अधोमार्गी। मुच्‍छ के आगे सब तुच्‍छ है। यह न हो तो वुह क्या सोहै। बहुतेरे रसिकमना वृद्ध जन खिजाब लगा के मुँह काला करते हैं। वह नहीं समझते कि मुच्‍द का एक यह रंग है जिस्‍की बदौलत गाँव भर नाती बन जाता है। बाजे मायाजालग्रस्‍त बुड्ढों को नाती से मुच्‍छैं नुचवाते बड़ा सुख मिलता है। पुपले-पुपले मुँह में तमाखू भरे हो हो हो हो, अरे छोड़ भाई, कहते हुए कैसे "पुलक प्रफुल्लित पूरित गाता' देख पड़ते हैं। कभी किसी बूढ़े कनवजिया को सेतुआ पीते देखा है? मुच्‍छों से उरौती टपकती  है, हहहह! सब तो हुवा पर सबकी मुच्‍छैं हैं कि - ? मुच्‍छ का सबिस्‍तर वर्णन उसी से होगा जो बाल की खाल निकाल सके। हमारे पूज्‍यपाद पंडित भाई गजराज प्रसाद जी ने यह वचन कैसा नित्‍य स्‍मरणीय कहा है कि "गालफुलाउब मोछ मिरोरब एकौ काम न आई, तीनि बरे जब हुचु-हुचु करिकै रहि जैहौ मुँह बाई।" श्री गोस्‍वामीजी का भी सिद्धांत है कि "पशू गढ़ंते नर भए भूलि सींग अरु पूँछ। तुलसी हरि की भगति बिन धिक दाढ़ी धिक मूंछ।" आज कल भारतवासियों की दुर्दशा भी इसी से हो रही है कि यह निरे "हाथ पाय के आलसी मुँहमां मुच्‍छें जायं।" धन बल विद्या सब तो स्‍वाहा हो गई फिर भी एका करने में कमर नहीं बाँधते। भाइयो! भ्रातृद्रोह से भागो। यह बहुत बुरा है। मुच्‍छैं बिन लेगा। प्‍यारे पाठक, खुश तो न होगे, कैसा बात का बतंगर कर दिया। 
------प्रतापनारायण मिश्र 

केनोपनिषत्


॥ अथ केनोपनिषत् ॥

ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि ।
सर्वं ब्रह्मौपनिषदं माऽहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणं मेऽस्तु ।
तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

ॐ केनेषितं पतति प्रेषितं मनः केन प्राणः प्रथमः प्रैति युक्तः । 
केनेषितां वाचमिमां वदन्ति चक्षुः श्रोत्रं क उ देवो युनक्ति ॥ १॥
श्रोत्रस्य श्रोत्रं मनसो मनो यद् वाचो ह वाचं स उ प्राणस्य प्राणः ।
 चक्षुषश्चक्षुरतिमुच्य धीराःप्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ॥ २॥
न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मनः । न विद्मो न विजानीमो यथैतदनुशिष्यात् ॥ ३॥
अन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादधि । इति शुश्रुम पूर्वेषां ये नस्तद्व्याचचक्षिरे ॥ ४॥
यद्वाचाऽनभ्युदितं येन वागभ्युद्यते । तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ ५॥
यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम् । तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ ६॥
यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षूँषि पश्यति । तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ ७॥
यच्छ्रोत्रेण न शृणोति येन श्रोत्रमिदं श्रुतम् । तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ ८॥
यत्प्राणेन न प्राणिति येन प्राणः प्रणीयते । तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ ९॥
॥ इति केनोपनिषदि प्रथमः खण्डः ॥

यदि मन्यसे सुवेदेति दहरमेवापि नूनं त्वं वेत्थ ब्रह्मणो रूपम् । 
यदस्य त्वं यदस्य देवेष्वथ नु मीमाँस्येमेव ते मन्ये विदितम् ॥ १॥
नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च । यो नस्तद्वेद तद्वेद नो न वेदेति वेद च ॥ २॥
यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः । अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम् ॥ ३॥
प्रतिबोधविदितं मतममृतत्वं हि विन्दते । आत्मना विन्दते वीर्यं विद्यया विन्दतेऽमृतम् ॥ ४॥
इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः । 
भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ॥ ५॥
॥ इति केनोपनिषदि द्वितीयः खण्डः ॥

ब्रह्म ह देवेभ्यो विजिग्ये तस्य ह ब्रह्मणो विजये देवा अमहीयन्त ॥ १॥
त ऐक्षन्तास्माकमेवायं विजयोऽस्माकमेवायं महिमेति । 
तद्धैषां विजज्ञौ तेभ्यो ह प्रादुर्बभूव तन्न व्यजानत किमिदं यक्षमिति ॥ २॥
तेऽग्निमब्रुवञ्जातवेद एतद्विजानीहि किमिदं यक्षमिति तथेति ॥ ३॥ 
तदभ्यद्रवत्तमभ्यवदत्कोऽसीत्यग्निर्वा अहमस्मीत्यब्रवीज्जातवेदा वा अहमस्मीति ॥ ४॥
तस्मिं स्त्वयि किं वीर्यमित्यपीदँ सर्वं दहेयं यदिदं पृथिव्यामिति ॥ ५॥
तस्मै तृणं निदधावेतद्दहेति । तदुपप्रेयाय सर्वजवेन तन्न शशाक दग्धुं स तत 
एव निववृते नैतदशकं विज्ञातुं यदेतद्यक्षमिति ॥ ६॥
अथ वायुमब्रुवन्वायवेतद्विजानीहि किमेतद्यक्षमिति तथेति ॥ ७॥
तदभ्यद्रवत्तमभ्यवदत्कोऽसीति वायुर्वा अहमस्मीत्यब्रवीन्मातरिश्वा वा अहमस्मीति ॥ ८॥
तस्मिँस्त्वयि किं वीर्यमित्यपीदँ सर्वमाददीय यदिदं पृथिव्यामिति ॥ ९॥
तस्मै तृणं निदधावेतदादत्स्वेति तदुपप्रेयाय सर्वजवेन तन्न शशाकादतुं स तत 
एव निववृते नैतदशकं विज्ञातुं यदेतद्यक्षमिति ॥ १०॥
अथेन्द्रमब्रुवन्मघवन्नेतद्विजानीहि किमेतद्यक्षमिति तथेति तदभ्यद्रवत्तस्मात्तिरोदधे ॥ ११॥
स तस्मिन्नेवाकाशे स्त्रियमाजगाम बहुशोभमानामुमाँ हैमवतीं ताँहोवाच किमेतद्यक्षमिति ॥ १२॥
॥ इति केनोपनिषदि तृतीयः खण्डः ॥

सा ब्रह्मेति होवाच ब्रह्मणो वा एतद्विजये महीयध्वमिति ततो हैव विदाञ्चकार ब्रह्मेति ॥ १॥
तस्माद्वा एते देवा अतितरामिवान्यान्देवान्यदग्निर्वायुरिन्द्रस्ते ह्येनन्नेदिष्ठं 
पस्पर्शुस्ते ह्येनत्प्रथमो विदाञ्चकार ब्रह्मेति ॥ २॥
तस्माद्वा इन्द्रोऽतितरामिवान्यान्देवान्स ह्येनन्नेदिष्ठं 
पस्पर्श स ह्येनत्प्रथमो विदाञ्चकार ब्रह्मेति॥३॥
तस्यैष आदेशो यदेतद्विद्युतो व्यद्युतदा३ इतीन् न्यमीमिषदा३ इत्यधिदैवतम् ॥ ४॥
अथाध्यात्मं यद्देतद्गच्छतीव च मनोऽनेन चैतदुपस्मरत्यभीक्ष्णँ सङ्कल्पः ॥ ५॥
तद्ध तद्वनं नाम तद्वनमित्युपासितव्यं स य एतदेवं वेदाभि हैनं सर्वाणि भूतानि संवाञ्छन्ति॥ ६॥
उपनिषदं भो ब्रूहीत्युक्ता त उपनिषद्ब्राह्मीं वाव त उपनिषदमब्रूमेति ॥ ७॥
तसै तपो दमः कर्मेति प्रतिष्ठा वेदाः सर्वाङ्गानि सत्यमायतनम् ॥ ८॥
यो वा एतामेवं वेदापहत्य पाप्मानमनन्ते स्वर्गे लोके ज्येये प्रतितिष्ठति प्रतितिष्ठति ॥ ९॥
॥ इति केनोपनिषदि चतुर्थः खण्डः ॥

ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि ।
सर्वं ब्रह्मौपनिषदं माऽहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणं मेऽस्तु ।
तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

॥ इति केनोपनिषत् ॥


Friday, December 18, 2015

ॐ ईशावास्योपनिषद्

ॐ ईशावास्योपनिषद्

ॐ ईशावास्यमिदं  सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्  ।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्  ॥ १॥
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतँ  समाः  ।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे  ॥ २॥
असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसाऽऽवृताः  ।
ताँ स्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः  ॥ ३॥
अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन्पूर्वमर्षत्  ।
तद्धावतोऽन्यानत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति  ॥ ४॥
तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके  ।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्य बाह्यतः  ॥ ५॥
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति  ।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ॥ ६॥
यस्मिन्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानतः  ।
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः  ॥ ७॥
स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम् ।
कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः ॥ ८॥
अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते  ।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायाँ रताः  ॥ ९॥
अन्यदेवाहुर्विद्ययाऽन्यदाहुरविद्यया  ।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे  ॥ १०॥
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयँ  सह  ।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते  ॥ ११॥
अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽसम्भूतिमुपासते  ।
ततो भूय इव ते तमो य उ सम्भूत्याँ रताः  ॥ १२॥
अन्यदेवाहुः सम्भवादन्यदाहुरसम्भवात्  ।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे  ॥ १३॥
सम्भूतिं च विनाशं च यस्तद्वेदोभयँ  सह  ।
विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्याऽमृतमश्नुते  ॥ १४॥
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्  ।
तत् त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ॥ १५॥
पूषन्नेकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य व्यूह रश्मीन् समूह ।
तेजो यत् ते रूपंकल्याणतमं तत् ते पश्यामि योऽसावसौ पुरुषः सोऽहमस्मि ॥ १६ ॥
वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तँ शरीरम्  ।
ॐ क्रतो स्मर कृतँ स्मर ॐ क्रतो स्मर कृतँ  स्मर ॥ १७ ॥
अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्  ।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम‍उक्तिं विधेम  ॥ १८ ॥

 पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पुर्णमुदच्यते
पूर्णश्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते 
 शान्तिः शान्तिः शान्तिः 







बुढ़िया

बुढ़िया चला रही थी चक्की, पूरे साठ वर्ष की पक्की। 

दोने में थी रखी मिठाई, उस पर उड़ मक्खी आई

बुढ़िया बाँस उठाकर दौड़ी, बिल्ली खाने लगी पकौड़ी।


बुढ़िया झपटी  घर के अंदर, कुत्ता भागा रोटी लेकर।

बुढ़िया तब फिर निकली बाहर, बकरा घुसा तुरंत ही भीतर।


बुढ़िया चली गिर गया मटका, तब तक वह बकरा भी सटका।

बुढ़िया बैठ गई तब थककर, सौंप दिया बिल्ली को ही घर।

श्री हनुमान चालीसा

श्री गुरु चरण सरोज रज , निज मनु मुकुरु सुधारि ।
बरनउँ  रघुवर  बिमल जसु , जो दायकु फल चारि ।।

बुद्धिहीन तनु जानिके , सुमिरौ पवन कुमार ।
बल बुधि विद्या देहु मोहिं, हरहु कलेश विकार ॥

जय हनुमान ज्ञान गुन सागर ,
जय कपीस तिंहुँ लोक उजागर । 

राम दूत अतुलित बल धामा ,
अंजनी पुत्र पवन सुत नामा । 

महाबीर विक्रम बजरंगी ,
कुमति निवार सुमति के संगी । 

कंचन बरन बिराज सुबेसा ,
कानन कुण्डल कुंचित केसा । 

हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजै ,
काँधे मूंज  जनेऊ साजै । 

संकर सुवन केसरी नंदन ,
तेज प्रताप महा जग बंदन । 

विद्यावान गुनी अति चातुर ,
राम काज करिबे को आतुर । 

प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया ,
राम लखन सीता मन बसिया । 

सूक्ष्म रूप धरी सियहिं  दिखावा ,
विकट रूप धरि  लंक  जरावा । 

भीम रूप धरि असुर सँहारे ,
रामचन्द्र के काज संवारे । 

लाय संजीवन लखन जियाये ,
श्रीरघुवीर हरषि उर लाये । 

रघुपति किन्ही बहुत बढ़ाई,
तुम मम  प्रिय भरतहिं सम भाई । 

सहस बदन तुम्हरो जस गावें ,
अस कहि  श्रीपति कंठ  लगावें । 

सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा ,
नारद सारद सहित अहीसा । 

जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते ,
कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते । 

तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा ,
राम मिलाय राज पद दीन्हा । 

तुम्हरो मंत्र विभीषण माना 
लंकेस्वर भए सब जग जाना । 

जग सहस्त्र जोजन पर भानु ,
लील्यो ताहि मधुर फल जानू । 

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं ,
जल्दी लाँघ गए अचरज नाहीं । 

दुर्गम काज जगत के  जेते ,
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते । 

राम दुआरे तुम रखवारे ,
होत न आज्ञा बिनु पैसारे ।

सब सुख लहै तुम्हारी सरना ,
तुम रच्छक कहु को डरना । 

आपन तेज सम्हारो आपै ,
तीनों लोक हांक ते कांपे । 

भूत  पिसाच निकट नहीं आवै ,
महाबीर जब नाम सुनावै । 

नासे रोग हरे सब पीरा ,
जपत निरंतर हनुमत बीरा । 

संकट ते हनुमान छुड़ावै ,
मन क्रम बचन ध्यान जो लावै ।
सब पर राम तपस्वी राजा ,
तिन के काज सकल तुम साजा । 

और मनोरथ जो कोई लावै ,
सोई अमिट जीवन फल पावै । 

चारों  जुग परताप तुम्हारा ,
है प्रसिद्ध जगत उजियारा । 

साधु संत के तुम रखवारे ,
असुर निकंदन राम दुलारे । 

अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता ,
अस बर दिन जानकी माता ।
राम रसायन तुम्हरे पासा,
सदा रहो रघुपति के दासा । 

तुम्हरे भजन राम को पावे,
जनम जनम के दुःख बिसरावे । 

अंत काल रघुबर पुर जाइ ,
जहाँ जन्म हरि भक्त कहाइ । 

और देवता चित्त न धरई ,
हनुमत सेइ सर्व सुख करइ । 

संकट कटे मिटे सब पीरा ,
जो सुमिरे हनुमत बलबीरा ।

जै जै जै  हनुमान गोसाईं ,
कृपा करहु गुरु देव की नाईं । 

जो सत बार पाठ  कर कोई ,
छूटहि  बंदी महा सुख होइ । 

जो यह पढ़े हनुमान चालीसा ,
होय सिद्धि साखी गौरीसा । 

तुलसीदास सदा हरि चेरा,

कीजै नाथ ह्रदय महँ डेरा । 

पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप ।
राम लखन सीता सहित हृद्य बसहु सुर भूप । 


Wednesday, December 16, 2015

बुद्धिमान पतोहु

राजगृह में धन्य नाम का एक धनी और बुद्धिमान व्यापारी रहता था। उसके चार पतोहुएँ थीं, जिनके नाम थे उज्झिका, भोगवती, रक्षिका और रोहिणी। एक दिन धन्य ने सोचा, मैं अपने कुटुम्ब में सबसे बड़ा हूँ और सब लोग मेरी बात मानते हैं। ऐसी हालत में यदि मैं कहीं चला जाऊँ या मर जाऊँ, बीमार हो जाऊँ, किसी कारण से काम की देखभाल न कर सकूँ, परदेश चला जाऊँ, तो मेरे कुटुम्ब का क्या होगा? कौन उसे सलाह देगा और कौन मार्ग दिखाएगा? ये  सोचकर धन्य ने बहुत-सा भोजन बनवाया और अपने सगे-सम्बन्धियों को निमन्त्रित किया। भोजन के बाद जब सब लोग आराम से बैठे थे, तब धन्य ने अपनी पतोहुओं को बुलाकर कहा, ‘‘देखो बेटियो, मैं तुम सबको धान के पाँच-पाँच दाने देता हूँ। इन्हें सँभाल कर रखना और जब मैं माँगूँ, मुझे लौटा देना।’’
चारों पतोहुओं ने जवाब दिया, ‘‘पिताजी की जो आज्ञा!’’ और वे दाने लेकर चली गयीं।
सबसे बड़ी पतोहू उज्झिका ने सोचा, ‘‘मेरे ससुर के कोठार में मनों धान भरे पड़े हैं, जब वे माँगेंगे, कोठार में से लाकर दे दूँगी।’’ यह सोचकर उज्झिका ने उन दानों को फेंक दिया और काम में लग गयी।
दूसरी पतोहू भोगवती ने भी यही सोचा कि मेरे ससुर के कोठार में मनों धान भरे हैं। उन दानों का छिलका उतारकर वह खा गयी।
तीसरी पतोहू रक्षिका ने सोचा कि ससुरजी ने बहुत-से लोगों को बुलाकर उनके सामने हमें धान के जो दाने दिये हैं और उन्हें सुरक्षित रखने को कहा है, अवश्य ही इसमें कोई रहस्य होना चाहिए। उसने उन दानों को एक साफ कपड़े में बाँध, अपने रत्नों की पिटारी में रख दिया और उसे अपने सिरहाने रखकर सुबह-शाम उसकी चौकसी करने लगी।
चौथी पतोहू रोहिणी के मन में भी यही विचार उठा कि ससुरजी ने कुछ सोचकर ही हम लोगों को धान के दाने दिये हैं। उसने अपने नौकरों को बुलवाकर कहा, ‘‘जोर की वर्षा होने पर छोटी-छोटी क्यारियाँ बनाकर इन धानों को खेत में बो दो। फिर इन्हें दो-तीन बार करके एक स्थान से दूसरे स्थान पर रोपो, और इनके चारों ओर बाड़ लगाकर इनकी रखवाली करो।’’
नौकरों ने रोहिणी के आदेश का पालन किया और जब हरे-हरे धान पककर पीले पड़ गये, उन्हें  काट लिया। फिर धानों को हाथ से मला और उन्हें साफ करके कोरे घड़ों में भर, घड़ों को लीप-पोतकर उन पर मोहर लगाकर कोठार में रखवा दिया।
दूसरे साल वर्षा ऋतु आने पर फिर से इन धानों को खेत में बोया और पहले की तरह काटकर साफ करके घड़ों में भर दिया।
इसी प्रकार तीसरे और चौथे वर्ष किया। इस तरह उन पाँचों दानों के बढ़ते-बढ़ते सैकड़ों घड़े धान हो गये। घड़ों को कोठार में सुरक्षित रख रोहिणी निश्चिन्त होकर रहने लगी।
चार वर्ष बीत जाने के बाद एक दिन धन्य ने सोचा कि मैंने अपनी पतोहुओं को धान के जो दाने दिये थे, उन्हें बुलाकर पूछना चाहिए कि उन्होंने उनका क्या किया।
धन्य ने फिर अपने सगे-सम्बन्धियों को निमन्त्रित किया और उनके सामने पतोहुओं को बुलाकर उनसे धान के दाने माँगे।
पहले उज्झिका आयी। उसने अपने ससुर के कोठार में से धान के पाँच दाने उठाकर ससुर जी के सामने रख दिये।
धन्य ने अपनी पतोहू से पूछा कि ये वही दाने हैं या दूसरे।
उज्झिका ने उत्तर दिया, ‘‘पिताजी, उन दानों को तो मैंने उसी समय फेंक दिया था। ये दाने आपके कोठार में से लाकर मैंने दिये हैं।’’
यह सुनकर धन्य को बहुत क्रोध आया। उसने उज्झिका को घर के झाड़ने-पोंछने और सफाई करने के काम में नियुक्त कर दिया।
तत्पश्चात भोगवती आयी। धन्य ने उसे कूटने, पीसने और रसोई बनाने के काम में लगा दिया। उसके बाद रक्षिका आयी। उसने अपनी पिटारी से पाँच दाने निकाल कर अपने ससुर के सामने रख दिये। इस पर धन्य प्रसन्न हुआ और उसे अपने माल-खजाने की स्वामिनी बना दिया।
अन्त में रोहिणी की बारी आयी। उसने कहा, ‘‘पिताजी, जो धान के दाने आपने दिये थे, उन्हें मैंने घड़ों में भरकर कोठार में रख दिया है। उन्हें यहाँ लाने के लिए गाड़ियों की आवश्यकता होगी।’’
धानों के घड़े मँगाये गये। धन्य अत्यन्त प्रसन्न हुआ।
रोहिणी को उसने सब घर-बार की मालकिन बना दिया।