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Saturday, February 26, 2011

कबीर के दोहे

गूंगा हुआ बावला,बहरा हुआ कान।
पाँऊ थें पंगुल भयासतगुरु मारा बान




कागद लिखै सो कागदीकि व्यवहारी जीव।
आतम दृष्टि कहा लिखैजित देखे तित पीव




प्रियतम को पतिया लिखूंकहीं जो होय बिदेस।
तन मेंमन मेंनैन मेंताकौ कहा संदेस





कस्तूरी कुण्डल बसैमृग ढूंढे बन माहिं।
ऐसे घट घट राम हैंदुनिया देखे नाहिं




पर नारी पैनी छुरी, विरला बांचै कोय

कबहुं छेड़ि न देखिये, हंसि हंसि खावे रोय॥ 





पर नारी का राचना, ज्यूं लहसून की खान।

कोने बैठे खाइये, परगट होय निदान॥ 







साधू गाँठ न बाँधई उदर समाता लेय।

आगे पाछे हरी खड़े जब माँगे तब देय॥



माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय । 

एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय ॥ 


माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर । 

कर का मन का डार दे, मन का मनका फेर ॥ 


तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय । 
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घनेरी होय ॥ 

गुरु गोविंद दो  खड़े, काके लागूं पाँय । 



बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो मिलाय ॥ 



सुख मे सुमिरन ना किया, दु:ख में किया याद । 

कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥ 


साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय । 
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥




धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय । 

माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥ 



कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और । 
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ॥ 


माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर । 
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥ 

रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय । 
हीरा जन्म अमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥ 



राम-रहीमा एक है, नाम धराया दोय।

कहै कबीरा दो नाम सुनि, भरम परौ मति कोय॥ 



काशी-काबा एक है, एकै राम रहीम।

मैदा इक पकवान बहु, बैठि कबीरा जीभ॥ 






एक वस्तु के नाम बहु, लीजै वस्तु पहिचान।

नाम पक्ष नहिं कीजिए, सार तत्व ले जान॥ 






राम कबीरा एक है, दूजा कबहु न होय।

अंतर टाटी कपट की, ताते दीखे दोय॥ 





जाति न पूछौ साधु की, जो पूछौ तो ज्ञान।

मोल करो तलवार का, परा रहन दो म्यान॥ 



कबिरा तेई पीर है, जो जानै पर पीर।

जो पर पीर न जानि है, सो काफिर बेपीर॥ 





पोथी पढि-पढि जग मुवा, पंडित भया न कोय।

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पण्डित होय॥ 






निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटी छबाय।

बिन पानी साबुन बिना, निरमल करै सुभाय॥ 




जहां दया तहँ धर्म है, जहां लोभ तहँ पाप।

जहां क्रोध तहँ काल है, जहाँ जहाँ क्षमा तहँ आप॥ 




पाहन पूजे हरि मिलै, तौ मैं पूंजूँ पहार।

ताते यह चाकी भली, पीसी खाय संसार॥ 




कबीर माला काठ की, कहि समझावे तोहि।


मन ना फिरावै आपनों, कहा फिरावै मोहि॥ 




मूरख को समुझावते, ज्ञान गाँठ का जाई।

कोयला होई न ऊजरो, नव मन साबुन लाई॥ 



माला तौ कर में फिरै, जीभ फिरै मुख माहिं।

मनुवा तौ चहुँदिसि फिरै, यह ते सुमिरन नाहिं॥ 



दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय।

जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय ॥



बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।

पंथी को छाया नही फल लागे अति दूर ॥

साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै थोथा देई उडाय॥


जो तोको काँटा बुवै ताहि बोव तू फूल।
तोहि फूल को फूल है वाको है तिरसुल॥

उठा बगुला प्रेम का तिनका चढ़ा अकास।
तिनका तिनके से मिला तिन का तिन के पास॥

सात समंदर की मसि करौं लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाइ॥

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