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Sunday, July 14, 2019

परमात्मा भाग 20

कितने ही बाहरी आडम्बर करो कोई लाभ नहीं है कितने ही कर्म धर्म के चक्कर में पड़ो सब बेकार है क्योंकि ऐसे साधनो से आत्मकल्याण होता ही नहीं है। कर्म अच्छा करो या बुरा करो दोनों प्रकार के कर्मो का फल भोगने बार बार इस मृत्यु लोक में आना ही पड़ेगा। कुछ भोले भाले लोग यह समझते हैं कि गुरु महाराज हमारा आत्मकल्याण कर देगें ये बात भी गलत है क्योंकि वास्तविक गुरु केवल हमें आत्मकल्याण का मार्ग समझा सकते हैं साधना करने का तरीका समझा सकते हैं इसके अलावा कुछ करते ही नहीं है यदि हम सतगुरु के बताये मार्ग पर चलेगें उनके बताये अनुसार साधना करेगें तब आत्मकल्याण निश्चित है। जो साधना हमे गुरु ने बताई है  वो साधना हमें ही करनी है हमारे बदले की साधना न तो गुरु करेंगें और न ही भगवान करेगें। तब ही तो भगवान ने कहा है कि मैं तो केवल उसी को मिलता हूँ जो मेरे बिना रह नहीं सकता।

यह बात स्वर्ण अक्षरो से लिखलो कि भक्ति के द्वारा परमात्मा की शरण ग्रहण करने पर ही आत्मकल्याण निश्चित है क्योंकि त्रिगुणात्मक माया केवल ईश्वर कृपा से ही जायेगी और कोई अन्य तरीका नहीं है और बिना माया निवृत्ति के ईश्वर प्राप्ति  सम्भव ही नहीं है।

माया निवृत्ति ईश्वर कृपा पर ही निर्भर है क्योंकि कोई भी साधन जीव को माया से बन्धनमुक्त नहीं कर सकता। भगवत गीता में इस बात का प्रमाण है-

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।

भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि यह त्रिगुणात्मक देवी माया दुरत्यय है इस माया से पार पाना असम्भव है जो जीवात्मा मेरी शरण में आता है तो उस जीवात्मा को मैं अपनी कृपा से  त्रिगुणात्मक माया से सदा के लिए  बन्धनमुक्त कर देता हूँ। ईश्वर प्राप्ति में ईश्वर कृपा अनिवार्य है। ये माया भगवान की शक्ति है और भगवान की शक्ति होने के फलस्वरूप भगवान के बराबर ही शक्तिशाली है इसी वजह से भगवान की कृपा से ही जीव इस माया से पार हो सकता है।

परमात्मा भाग 19

न रोधयति मां योगो न सांख्यं धर्म एव च।
न स्वाध्यायस्तपस्तयागो नेष्टापूर्त न दक्षिणा।।

व्रतानि यज्ञश्छन्दांसि तीर्थानि नियमा यमाः।
यथावरुन्धे सत्संगः सर्वसंगापहो हि माम्।।

भगवान श्री कृष्ण उद्धव से कहते हैं कि हे प्रिय उद्धव संसार में जितनी आसक्तियाँ हैं, उन्हें सत्संग नष्ट कर देता है। यही करण है कि सत्संग जिस प्रकार मुझे वश में कर लेता है वैसा साधन न तो योग है ,न सांख्य , न धर्मपालन और न स्वध्याय ,तपस्या, त्याग, इष्टापूर्त और दक्षिणा से भी मैं वैसा प्रसन्न नहीं होता। कहाँ तक कहूँ - व्रत, यज्ञ, वेद, तीर्थ और यम नियम भी  सत्संग के समान मुझे वश में नहीं करसकते। नारद जी अपने 19 वे  भक्तिसूत्र में लिखते है कि -

"नारदस्तु  तदार्पिताखिलाचारिता तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति। "

नारद जी कहते हैं कि  अपने समस्त कर्मो को भगवान को अर्पण करना और भगवान का  थोड़ा सा भी विस्मरण होने पर परम व्याकुल होना ही भक्ति है।

सबसे सुलभ साधन भक्ति योग है। नारद जी अपने 48 वें भक्ति सूत्र में कहते हैं कि -

" अन्यस्मात सौलभ्यं भक्तौ "

जितने साधन हैं उन सब की अपेक्षा भक्ति ही सुलभ है। भक्ति की प्राप्ति में न तो विद्या की आवश्यकता है न धन की आवश्यकता है और न उच्चवर्णाश्रम की, न श्रेष्ठ कुल की आवश्यकता है, न कठोर तप की आवश्यकता है, न वेदाध्यन की आवश्यकता है। केवल सरल भाव से भगवान की अपार कृपा पर विश्वास करके उनका सतत प्रेमभावसे स्मरण करने की आवश्यकता है।

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूस्वाम।।

ये वेद मन्त्र कह रहा है कि परमात्मा न तो उसको मिलते हैं जो शास्त्रो को पढ़ सुनकर लच्छेदार भाषा में ईश्वर का नाना प्रकार से वर्णन करके प्रवचन करते हैं, और न उनको ही मिलते हैं जो अपनी बुद्धि के अभिमान में  पागल होकर तर्क के द्वारा समझाने की चेष्टा करते हैं और न उनको ही मिलते हैं जो बहुत कुछ सुनते सुनाते रहते हैं, कमाल की  बात है तो प्रभु आप ही बतायें कि आप किसको मिलते हैं तो परमात्मा कहते हैं कि मैं केवल उसी को मिलता हूँ जिसको मैं स्वीकार कर लेता हूँ, जिसको मैं अपना मानकर अपना लेता हूँ और मैं उसी को स्वीकार करता हूँ, अपना मानता हूँ जो मेरे बिना रह नहीं सकता। जो मेरी कृपा की प्रतीक्षा करता है। ऐसे कृपा निर्भर  भक्त पर मैं सदैव कृपा करता हूँ और योगमाया का पर्दा हटाकर उस भक्त के सामने अपने सच्चिदानन्दघन स्वरूप में प्रकट हो जाता हूँ।

परमात्मा भाग 18

भक्त जब अपना संसार व शरीर तक भगवान को समर्पण कर चुका होता है तब उसका संसार रहे या चला जाये उस पर कोई फर्क नहीं पड़ता बल्कि उस भक्त के लिए यह संसार ही भगवान का स्वरूप हो जाता है। ऐसे भक्त के लिए चलना, उठना, बैठना, स्नान करना, भोजन करना, व्यापार आदि समस्त कार्य  भजन साधना हो जाते हैं वो जो भी कार्य करता है वो भगवान की भक्ति है। भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं  -

अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः।

हे अर्जुन जो मनुष्य अनन्य मन से मेरा नित्य निरन्तर चिन्तन करता है ऐसे भक्त के लिए मुझे प्राप्त करना अत्यन्त सुलभ है। भक्त को चाहिए कि मन से निरन्तर परमात्मा का चिन्तन करे और शरीर से परमात्मा की सेवा करे। जितना हो सके अधिक से अधिक वाणी से ईश्वर के गुण लीला लोगों को सुनाओ और कानों से ईश्वर की चर्चा सुनो, आँखों से भगवत सम्बन्धी ग्रन्थ पढ़ो उनके लीला धाम के दर्शन करो। गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं कि -

जिन्ह हरिकथा सुनी नहिं काना।
श्रवन रंध्र अहि भवन समाना।।

जो नहिं करइ राम गुन गाना।
जीह सो दादुर जीह समाना।।
                 
ईश्वरभक्त का अपनी इंद्रियाँ, मन, बुद्धि यहांँ तक कि अपने शरीर पर भी कोई अधिकार नहीं रहता फिर परिवार और संसार पर तो उसका अधिकार हो ही कैसे सकता है, आत्मा के अलावा उसके पास अपना कुछ भी नहीं है  और यदि कुछ है तो उस कुछ के कारण भक्ति में बड़ी बाधा उत्पन्न होगी, वास्तव में आत्मा का सम्बन्ध संसार तथा सांसारिक वस्तुओं से कोई सम्बन्ध होता ही नहीं, वो तो जबरदस्ती सम्बन्ध बनाकर जन्म-मरण का दुःख भोगना पड़ रहा है। आत्मा का सम्बन्ध केवल सिर्फ केवल परमात्मा से ही है इसलिए परमात्मा को पाकर आत्मा सदा के लिए अनन्दमय हो जाता है।सांसारिक वस्तुओं से आत्मा की तृप्ति नहीं हो सकती यदि किसी मनुष्य को ब्रह्माण्ड के बराबर सम्पत्ति मिल जाये तो वो पागल तो अवश्य हो जायेगा परन्तु शान्त नहीं हो सकता। भागवत महापुराण में भगवान कहते हैं कि -

भक्तिं लब्धवतः साधोः किमन्यदवशिष्यते।
मय्यनन्तगुणे ब्रह्मण्यानन्दानुभवात्मनि।।

भगवान कहते हैं कि मुझ  अनन्त गुण सम्पन्न सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में भक्ति हो जाने पर फिर साधु महात्मा पुरूष को ओर कोन सी वस्तु प्राप्त  करनी बाकी रह जाती है? वह तो सदा के लिए कृतार्थ हो जाता है।
                 

परमात्मा भाग 17

रामचरित् मानस में तुलसीदास जी लिखते हैं -

भक्ति सुतन्त्र सकल सुख खानी।
बिनु सत्संग न पावहि परानी।।

भक्ति  में कोई भेद नहीं है, कोई नियम कानून नहीं है, भक्ति की प्राप्ति में न तो विद्या की आवश्यकता है, न धन की आवश्यकता है और न उच्चवर्णाश्रम, न वेदाध्यन की आवश्यकता है, न कठोर तप की आवश्यकता है, केवल सरल भाव से भगवान की अपार कृपा पर विश्वास करके उनका सतत प्रेमभाव से स्मरण करने की आवश्यकता है। भगवान की कृपा  हर वक्त प्रत्येक जीव पर हमेशा रहती है जिस प्राणी को इस पर विश्वास नहीं है वही ईश्वर कृपा से वंचित रह जाता है। श्री कृष्ण भगवान कहते हैं कि -

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।।

भगवान कहते हैं कि जो  सम्पूर्ण लोकों के ईश्वरों के भी ईश्वर हैं, वे बिना कारण स्वभाविक ही प्राणीमात्र का हित करने वाले हैं इस प्रकार जान व मान लेने पर प्राणी को परमशान्ति प्राप्त हो जाती है।

"लोकहानौ चिन्ता न कार्या निवेदितात्मलोकवेदत्वात् "

ईश्वर भक्त लोकहानि की चिन्ता नहीं करता क्योंकि ईश्वर भक्त अपने आपको और लौकिक, वैदिक सभी प्रकार के कर्मो को भगवान को अर्पण कर चुका है। भक्त के पास चिन्ता करने के लिए कुछ भी शेष नहीं बचा रहता सब कुछ परमात्मा को  अर्पण कर दिया। स्त्री, पुत्र, धन, जन, मान आदि पदार्थ रहें या चले  जाएं उस भक्त को इनकी कोई परवाह नहीं है, क्योंकि वह तो इन सब को पहले ही भगवान को समर्पण करके सर्वथा अकिंचन हो चुका है, फिर भक्त इनकी चिन्ता क्यों करे। अब तो भक्त के पास चिन्ता करने के लिए परमात्मा के अलावा कुछ भी नहीं है,  भक्त रात  दिन परमात्मा के बारे में ही चिन्तन करता है। भक्त को सांसारिक मोहमाया छोड़ने के लिए कुछ नहीं करना होता वो तो अपने आप ही सब छूट जाता है।