भक्त जब अपना संसार व शरीर तक भगवान को समर्पण कर चुका होता है तब उसका संसार रहे या चला जाये उस पर कोई फर्क नहीं पड़ता बल्कि उस भक्त के लिए यह संसार ही भगवान का स्वरूप हो जाता है। ऐसे भक्त के लिए चलना, उठना, बैठना, स्नान करना, भोजन करना, व्यापार आदि समस्त कार्य भजन साधना हो जाते हैं वो जो भी कार्य करता है वो भगवान की भक्ति है। भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं -
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः।
हे अर्जुन जो मनुष्य अनन्य मन से मेरा नित्य निरन्तर चिन्तन करता है ऐसे भक्त के लिए मुझे प्राप्त करना अत्यन्त सुलभ है। भक्त को चाहिए कि मन से निरन्तर परमात्मा का चिन्तन करे और शरीर से परमात्मा की सेवा करे। जितना हो सके अधिक से अधिक वाणी से ईश्वर के गुण लीला लोगों को सुनाओ और कानों से ईश्वर की चर्चा सुनो, आँखों से भगवत सम्बन्धी ग्रन्थ पढ़ो उनके लीला धाम के दर्शन करो। गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं कि -
जिन्ह हरिकथा सुनी नहिं काना।
श्रवन रंध्र अहि भवन समाना।।
जो नहिं करइ राम गुन गाना।
जीह सो दादुर जीह समाना।।
ईश्वरभक्त का अपनी इंद्रियाँ, मन, बुद्धि यहांँ तक कि अपने शरीर पर भी कोई अधिकार नहीं रहता फिर परिवार और संसार पर तो उसका अधिकार हो ही कैसे सकता है, आत्मा के अलावा उसके पास अपना कुछ भी नहीं है और यदि कुछ है तो उस कुछ के कारण भक्ति में बड़ी बाधा उत्पन्न होगी, वास्तव में आत्मा का सम्बन्ध संसार तथा सांसारिक वस्तुओं से कोई सम्बन्ध होता ही नहीं, वो तो जबरदस्ती सम्बन्ध बनाकर जन्म-मरण का दुःख भोगना पड़ रहा है। आत्मा का सम्बन्ध केवल सिर्फ केवल परमात्मा से ही है इसलिए परमात्मा को पाकर आत्मा सदा के लिए अनन्दमय हो जाता है।सांसारिक वस्तुओं से आत्मा की तृप्ति नहीं हो सकती यदि किसी मनुष्य को ब्रह्माण्ड के बराबर सम्पत्ति मिल जाये तो वो पागल तो अवश्य हो जायेगा परन्तु शान्त नहीं हो सकता। भागवत महापुराण में भगवान कहते हैं कि -
भक्तिं लब्धवतः साधोः किमन्यदवशिष्यते।
मय्यनन्तगुणे ब्रह्मण्यानन्दानुभवात्मनि।।
भगवान कहते हैं कि मुझ अनन्त गुण सम्पन्न सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में भक्ति हो जाने पर फिर साधु महात्मा पुरूष को ओर कोन सी वस्तु प्राप्त करनी बाकी रह जाती है? वह तो सदा के लिए कृतार्थ हो जाता है।
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