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Sunday, July 14, 2019

परमात्मा भाग 17

रामचरित् मानस में तुलसीदास जी लिखते हैं -

भक्ति सुतन्त्र सकल सुख खानी।
बिनु सत्संग न पावहि परानी।।

भक्ति  में कोई भेद नहीं है, कोई नियम कानून नहीं है, भक्ति की प्राप्ति में न तो विद्या की आवश्यकता है, न धन की आवश्यकता है और न उच्चवर्णाश्रम, न वेदाध्यन की आवश्यकता है, न कठोर तप की आवश्यकता है, केवल सरल भाव से भगवान की अपार कृपा पर विश्वास करके उनका सतत प्रेमभाव से स्मरण करने की आवश्यकता है। भगवान की कृपा  हर वक्त प्रत्येक जीव पर हमेशा रहती है जिस प्राणी को इस पर विश्वास नहीं है वही ईश्वर कृपा से वंचित रह जाता है। श्री कृष्ण भगवान कहते हैं कि -

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।।

भगवान कहते हैं कि जो  सम्पूर्ण लोकों के ईश्वरों के भी ईश्वर हैं, वे बिना कारण स्वभाविक ही प्राणीमात्र का हित करने वाले हैं इस प्रकार जान व मान लेने पर प्राणी को परमशान्ति प्राप्त हो जाती है।

"लोकहानौ चिन्ता न कार्या निवेदितात्मलोकवेदत्वात् "

ईश्वर भक्त लोकहानि की चिन्ता नहीं करता क्योंकि ईश्वर भक्त अपने आपको और लौकिक, वैदिक सभी प्रकार के कर्मो को भगवान को अर्पण कर चुका है। भक्त के पास चिन्ता करने के लिए कुछ भी शेष नहीं बचा रहता सब कुछ परमात्मा को  अर्पण कर दिया। स्त्री, पुत्र, धन, जन, मान आदि पदार्थ रहें या चले  जाएं उस भक्त को इनकी कोई परवाह नहीं है, क्योंकि वह तो इन सब को पहले ही भगवान को समर्पण करके सर्वथा अकिंचन हो चुका है, फिर भक्त इनकी चिन्ता क्यों करे। अब तो भक्त के पास चिन्ता करने के लिए परमात्मा के अलावा कुछ भी नहीं है,  भक्त रात  दिन परमात्मा के बारे में ही चिन्तन करता है। भक्त को सांसारिक मोहमाया छोड़ने के लिए कुछ नहीं करना होता वो तो अपने आप ही सब छूट जाता है।

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