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Sunday, April 7, 2019

मजाक

पिता और पुत्र साथ-साथ टहलने निकले,वे दूर खेतों की तरफ निकल आये, तभी पुत्र ने देखा कि रास्ते में, पुराने हो चुके एक जोड़ी जूते उतरे पड़े हैं, जो ...संभवतः पास के खेत में काम कर रहे गरीब मजदूर के थे.

पुत्र को मजाक सूझा. उसने पिता से कहा क्यों न आज की शाम को थोड़ी शरारत से यादगार बनायें, आखिर ... मस्ती ही तो आनन्द का सही स्रोत है. पिता ने असमंजस से बेटे की ओर देखा.

पुत्र बोला हम ये जूते कहीं छुपा कर झाड़ियों के पीछे छुप जाएं. जब वो मजदूर इन्हें यहाँ नहीं पाकर घबराएगा तो बड़ा मजा आएगा. उसकी तलब देखने लायक होगी, और इसका आनन्द मैं जीवन भर याद रखूंगा.

पिता, पुत्र की बात को सुन  गम्भीर हुये और बोले बेटा ! किसी गरीब और कमजोर के साथ उसकी जरूरत की वस्तु के साथ इस तरह का भद्दा मजाक कभी न करना. जिन चीजों की तुम्हारी नजरों में कोई कीमत नहीं,

वो उस गरीब के लिये बेशकीमती हैं. तुम्हें ये शाम यादगार ही बनानी है, तो आओ .. आज हम इन जूतों में कुछ सिक्के डाल दें और छुप कर देखें कि ... इसका मजदूर पर क्या प्रभाव पड़ता है.पिता ने ऐसा ही किया और दोनों पास की ऊँची झाड़ियों में छुप गए.

मजदूर जल्द ही अपना काम ख़त्म कर जूतों की जगह पर आ गया. उसने जैसे ही एक पैर जूते में डाले उसे किसी कठोर चीज का आभास हुआ, उसने जल्दी से जूते हाथ में लिए और देखा कि ...अन्दर कुछ सिक्के पड़े थे.

उसे बड़ा आश्चर्य हुआ और वो सिक्के हाथ में लेकर बड़े गौर से उन्हें देखने लगा. फिर वह इधर-उधर देखने लगा कि उसका मददगार शख्स कौन है? दूर-दूर तक कोई नज़र नहीं आया, तो उसने सिक्के अपनी जेब में डाल लिए. अब उसने दूसरा जूता उठाया,  उसमें भी सिक्के पड़े थे.

मजदूर भाव विभोर हो गया.

वो घुटनो के बल जमीन पर बैठ ...आसमान की तरफ देख फूट-फूट कर रोने लगा. वह हाथ जोड़ बोला
हे भगवान् ! आज आप ही किसी रूप में यहाँ आये थे, समय पर प्राप्त इस सहायता के लिए आपका और आपके  माध्यम से जिसने भी ये मदद दी,उसका लाख-लाख धन्यवाद.
आपकी सहायता और दयालुता के कारण आज मेरी बीमार पत्नी को दवा और भूखे बच्चों को रोटी मिल सकेगी.तुम बहुत दयालु हो प्रभु ! आपका कोटि-कोटि धन्यवाद.

मजदूर की बातें सुन ... बेटे की आँखें भर आयीं.
पिता ने पुत्र को सीने से लगाते हुयेे कहा ~क्या तुम्हारी मजाक मजे वाली बात से जो आनन्द तुम्हें जीवन भर याद रहता उसकी तुलना में इस गरीब के आँसू और दिए हुये आशीर्वाद तुम्हें जीवन पर्यंत जो आनन्द देंगे वो उससे कम है, क्या ?

पिताजी .. आज आपसे मुझे जो सीखने को मिला है, उसके आनंद को मैं अपने अंदर तक अनुभव कर रहा हूँ. अंदर में एक अजीब सा सुकून है.

आज के प्राप्त सुख और आनन्द को मैं जीवन भर नहीं भूलूँगा. आज मैं उन शब्दों का मतलब समझ गया जिन्हें मैं पहले कभी नहीं समझ पाया था. आज तक मैं मजा और मस्ती-मजाक को ही वास्तविक आनन्द समझता था, पर आज मैं समझ गया हूँ कि लेने की अपेक्षा देना कहीं अधिक आनंददायी है.

परमात्मा भाग-6

ज्ञान योग

वास्तव में ज्ञान योग पूर्णतः जीव कल्याण के लिए सक्षम है परन्तु है बहुत कठिन मार्ग। क्योंकि ज्ञान मार्ग में मनुष्य को ब्रह्म के उस स्वरूप का  ध्यान करना है जिसका न कोई आकार है, न कोई रूप है, न कोई नाम है। इसके अलावा त्रिगुणात्मक माया के आधीन मनुष्य की इंद्रीय, मन, बुद्धि भी मायिक होती हैं और मायिक इंद्रीय, मन, बुद्धि से माया से परे निराकार ब्रह्म का ध्यान करना असम्भव जैसा है क्योंकि प्राकृतिक इंद्रीय मन बुध्दि का सेवा कर्म माया का एरिया ही है माया से परे प्राकृतिक इंद्रीय मन बुध्दि की पहुँच नहीं है। रामायण कहती है कि -

कहत कठिन समुझत कठिन साधत कठिन विवेक।
होई घुनाच्छर न्याय जो पुनः प्रत्युह अनेक।।

भावार्थ यह है कि ज्ञान योग कहने में कठिन समझाना व समझना कठिन है और इस मार्ग की साधना भी कठिन है। यदि इस  मार्ग पर कोई साधक चल भी पड़ा  तो बार बार गिर पड़ता है। आगे रामायण कहती है कि -

ज्ञान पंथ कृपान कै धारा।
परत खगेश न लागई बारा।।

कागभुसण्डी जी गरूड़ जी से कहते हैं कि ज्ञान मार्ग तलवार की धार जैसा है इस मार्ग में मनुष्य को गिरते देर नहीं लगती ।

ज्ञान मार्ग  और परमात्मा  के  मिलन में माया प्रकृति ही वास्तविक और सबसे बड़ी बाधा है। ज्ञान मार्ग का  साधक जब साधना आदि करते हुए अपने ज्ञान मार्ग पर चलता है तो उसका अपना बल होता है और यही कारण है कि उसे अपने ज्ञान का अहंकार हो जाता है और वह समझता है कि उसे भगवान की कृपा की आवश्यकता नहीं है बस यही मौका पाकर माया ज्ञानी का पतन कर देती है, बड़े बड़े  सन्तो का माया प्रकृति के द्वारा पतन होते हुए देखा गया है, क्योंकि ज्ञानी को अपने बल पर साधना आदि करके ज्ञान मार्ग पर चलना होता है अब चूँकि माया उससे अधिक बलवान है इस लिए उस साधक का पतन कर देती है। ऐसे साधक के ब्रह्म ज्ञान होने तक माया उसका साथ नहीं छोड़ती इस लिए यह मार्ग बहुत कठिन है।
              

अंधों की गणना

एक बार बादशाह अकबर ने बीरबल को राज्य के अंधों की सूची लाने का आदेश दिया. एक दिन में ये कार्य असंभव था. इसलिए बीरबल ने अकबर से एक सप्ताह का समय मांग लिया.

अगले दिन बीरबल दरबार में उपस्थित नहीं हुआ. वह एक थैला लेकर नगर के हाट बाज़ार में गया और बीचों-बीच एक स्थान पर बैठ गया. फिर उसने अपने थैले से जूता निकला और उसे सिलने लगा.


आते-जाते लोगों ने जब बीरबल को जूता सिलते हुए देखा, तो हैरत में पड़ गए. बादशाह अकबर के सलाहकार और राज्य के सबसे बड़े विद्वान व्यक्ति के बीच बाज़ार बैठकर जूते सिलने की बात किसी के गले नहीं उतर रही थी.

कई लोगों से रहा नहीं गया और वे बीरबल से पूछ ही बैठे, “महाशय! ये आप क्या कर रहे हैं?”

इस सवाल का जवाब देने के बजाय बीरबल ने अपने थैले में से एक कागज निकाला और उसमें कुछ लिखने लगा. इसी तरह दिन गुरजते रहे और बीरबल का बीच बाज़ार बैठकर जूते सिलने का सिलसिला जारी रहा.

“ये आप क्या कर रहे हैं?” जब भी ये सवाल पूछा जाता, वह कागज पर कुछ लिखने लगता. धीरे-धीरे पूरे नगर में ये बात फ़ैल गई कि बीरबल पागल हो गया है.

एक दिन बादशाह अकबर का काफ़िला उसी बाज़ार से निकला. जूते सिलते हुए बीरबल पर जब अकबर की दृष्टि पड़ी, तो वे बीरबल के पास पहुँचे और सवाल किया, “बीरबल! ये क्या कर रहे हो?”


बीरबल अकबर के सवाल का जवाब देने के बजाय कागज पर कुछ लिखने लगा. ये देख अकबर नाराज़ हो गए और अपने सैनिकों से बोले, “बीरबल को पकड़ कर दरबार ले चलो.”

दरबार में सैनिकों ने बीरबल को अकबर के सामने पेश किया. अकबर बीरबल से बोले, “पूरे नगर में ये बात फ़ैली हुई है कि तुम पागल हो गए हो. आज तो हमने भी देख दिया. क्या हो गया है तुम्हें?”

जवाब में बीरबल ने एक सूची अकबर की ओर बढ़ा दी. अकबर हैरत से उस सूची को देखने लगे.

तब बीरबल बोला, “जहाँपनाह! आपके आदेश अनुसार राज्य के अंधों की सूची तैयार है. आज हफ्ते का आखिरी दिन है और मैंने अपना काम पूरा कर लिया है.”

सूची काफ़ी लंबी थी. अकबर सूची लेकर उसमें लिखे नाम पढ़ने लगे. पढ़ते-पढ़ते जब वे सूची के अंत में पहुँचे, तो वहाँ अपना नाम लिखा हुआ पाया. फिर क्या? वे बौखला गए.


“बीरबल! तुम्हारी ज़ुर्रत कैसे हुई हमारा नाम इस सूची में डालने की?” अकबर बीरबल पर बिफ़रने लगे.

“गुस्सा शांत करें हुज़ूर, मैं सब बता रहा हूँ.” कहकर बीरबल बताने लगा, “बादशाह सलामत!  पिछले एक सप्ताह से मैं रोज़ बीच बाज़ार जाकर जूते सिल रहा था. मेरे क्रिया-कलाप हर आते-जाते व्यक्ति को नज़र आ रहे थे. तिस पर भी वे आकर मुझसे पूछते कि मैं क्या कर रहा हूँ और मैं उनका नाम अंधों की सूची में डाल देता. सब आँखें होते हुए भी अंधे थे हुज़ूर. गुस्ताखी माफ़ हुज़ूर, ये सवाल आपने भी किया था, इसलिए आपका नाम भी इस सूची में है.”

अब अकबर क्या कहते ??? वे निरुत्तर हो गए....

परमात्मा भाग-6

अकर्म 

अकर्म कर्म क्या है?
भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को सर्वगुह्यतम रहस्य बताते हुए कहते हैं -

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्करु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन जिस मन के कारण तू युद्ध करने से डर रहा है वही अपना मन मुझे अर्पित कर दे फिर तू बिना किसी डर के निडर होकर युद्ध कर फिर तुझे युद्ध सम्बन्धी कर्म का फल ही नहीं मिलेगा। अब अर्जुन ने भगवान के कहने पर अपना मन, बुद्धि भगवान को समर्पित कर दिया उसके बाद अर्जुन ने युद्ध रूपी कर्म किया लेकिन नहीं किया क्योंकि अर्जुन के मन और बुद्धि में भगवान श्रीकृष्ण प्रवेश कर गये   अब युद्ध रूपी कर्म अर्जुन ने नहीं बल्कि भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं किया, इसी को अकर्म कर्म कहते हैं। अब अर्जुन को एक शंका फिर  हुई उसने भगवान से कहा प्रभु जो  मेरे सन्चित कर्म है वो कैसे समाप्त होंगें, फिर भगवान अर्जुन से कहते हैं कि -

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।

भगवान कहते हैं कि तू अपना मन बुध्दि मुझे अर्पण करके और समस्त धर्मो का परित्याग करके केवल एक ही धर्म  और वो यह कि केवल अनन्य रूप से मेरी शरण में आजा चिन्ता मत कर मैं पलभर में ही तेरे समस्त पाप पुण्य समाप्त कर दुंगा। इसके बाद भगवान अर्जुन से कहते हैं कि -

कच्चिदेतच्छुतं पार्थ त्वैयकाग्रेण चेतसा।
कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञज्य।।

भगवान कहते हैं कि हे अर्जुन तूने मेरी बात को एकाग्रता से सुना उसके बाद अब तूने क्या करना है क्या तेरा अज्ञान से उत्पन्न मोह नष्ट हो गया, तब अर्जुन कहता है कि हाँ प्रभु आपकी कृपा से मेरा अज्ञान से उत्पन्न मोह समाप्त हो गया अब निडर होकर युद्ध करुंगा।

अब आगे भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि -

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं  निवेशय।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊध्र्वं न संशयः।।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन अपने मन बुध्दि को मुझमें प्रविष्ट कर निसन्देह इसके बाद तू मुझमें ही निवास करेगा । भागवत महापुराण से भी प्रमाणित किया जा रहा है। भगवान श्रीकृष्ण उद्धव से कहते हैं कि -

कुर्यात् सर्वाणि कर्माणि मदर्थं शनकैः स्मरन्।
मय्यर्पितमनश्चित्तो मद्धर्मात्ममनोरतिः।।

भगवान कहते हैं कि हे उद्धवजी मेरे भक्त को चाहिए कि अपने सारे कर्म मेरे लिए ही करे और उन कर्मो को करते समय धीरे - धीरे मेरे स्मरण का अभ्यास  बढ़ाये। कुछ ही दिनो में उसके मन और चित्त मुझमें समर्पित हो जायेगें। उसके मन और आत्मा मेरे ही धर्मो में रम जायेगें। आगे इसको वेदो से भी प्रमाणित किया जा रहा है -

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत  समाः।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।

ये वेदमन्त्र कहरहा है कि समस्त जगत के एकमात्र कर्ता, धर्ता, हर्ता, सर्वशक्तिमान परमेश्वर का स्मरण करते हुए, सब कुछ उन्हीं का समझते हुए उन्हीं की पूजा के लिए शास्त्रनियत कर्तव्यकर्मो का आचरण करते हुए ही 100 वर्ष तक जीने की इच्छा करो -- इस प्रकार अपने पूरे जीवन को परमेश्वरके प्रति समर्पण करदो।

इस प्रकार बहुत ही संक्षेप में अकर्म पर प्रकाश डाला गया।

(4) कर्मसन्यास - कर्मसन्यास मोक्ष की अन्तिम अवस्था है। इस अवस्था में जीवात्मा समस्त संसार प्रपंच से उपर उठ जाता है, वह सभी रिश्ते नातों से विरक्त होकर आत्मस्वरूप में ही रमण करता है।



            

Saturday, April 6, 2019

परमात्मा भाग-5

चर्चा अकर्म कर्म की चल रही है। एक तरफ तो शास्त्र कहते हैं कि निःसन्देह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृतिजनित  गुणो द्वारा परबस हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है। कर्म करना ही पड़ता है। कर्म क्यों करना पड़ता है यह भी एक बड़ा रहस्य है। इस रहस्य के बारे में मैं पहले बता चुका हूँ दोबारा बाद में कभी इस सम्बन्ध में चर्चा अवश्य करेंगे। हाँ तो बात यह चल रही थी कि कर्म करें तो जन्म - मरण होता है और कर्म न करे तो ईश्वर प्राप्ति होती है अजीब पहेली है। ऐसी दशा में हम शास्त्रों  को आधार मानकर ही इस पहेली को सुलझा सकते है। शास्त्र कहते हैं कि " मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयोः " मन ही है मनुष्यो के बन्धन और मुक्ति का कारण,  अच्छे बुरे समस्त कर्म मन के द्वारा ही होते हैं। महापुरुष कहते हैं कि परमात्मा मन से किये  हुए कर्मो को ही नोट करते हैं अन्य इंद्रीयो का वर्क भगवान नोट नहीं करते।

धर्म, विकर्म, अकर्म, कर्मसन्यास, ये सब कर्म मन के द्वारा ही होते हैं। ये मन जब तक हमारे साथ रहकर अथवा हमें बहकावे में डालकर माया सम्बन्धी कर्म करता रहेगा तब जन्म - मरण की प्रक्रिया चलती रहेगी। यदि हम किसी वास्तविकता मायातीत महापुरुष के कहने से अपने मन को परमात्मा को समर्पित करदे तदुपरांत हमारे द्वारा किये गये समस्त कर्म अकर्म में बदल जायेगें। अर्जुन ने महाभारत में जब युद्ध करने के लिए श्रीकृष्ण से साफ मना कर दिया तब भगवान श्रीकृष्ण ने यही ज्ञान अर्जुन को दिया था -

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्ध च। मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्।।

हे अर्जुन तू अपने मन  से हर समय मेरा ही चिन्तन करते हुए युद्ध कर ऐसा करने से युद्ध रूपी कर्म करने के साथ - साथ निसन्देह  ही मुझे प्राप्त कर लेगा।

मय्यर्पितमनोबुद्धिः -- भगवान को मन और बुद्धि अर्पित करने का साधारण अर्थ है कि मन से परमात्मा का चिन्तन हो और बुद्धि से परमात्मा का निश्चय किया जाये। परन्तु इसका वास्तविक अर्थ है -- मन, बुद्धि, इंद्रीया, शरीर आदि को भगवान के ही मानना, कभी भूल से भी इनको अपने न मानना ।

अपने आप जो कर्म करता है वह कर्म है उसका फल है जन्म - मरण और जीव का जो कर्म स्वयं भगवान करते हैं  वह कर्म अकर्म होता है उस कर्म का फल ईश्वर प्राप्ति है। इसको प्रमाणित करने के लिए भगवत गीता का सहारा लेते हैं। भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को 18 अध्याय 700 श्लोक भगवत गीता  में ज्ञान दिया परन्तु अर्जुन को युद्ध कर्म के फल का डर लग रहा था । भगवान श्री कृष्ण के द्वारा समस्त प्रयास करने पर भी जब अर्जुन युद्ध करने को तैयार नहीं हुआ तब भगवान अन्तिम ब्रह्मास्त्र रूपी वचन अर्जुन से कहते हैं कि --

सर्वगुह्यतम भूयः श्रृणु मे परमं वचः ।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्ययामि ते हितम।।

भगवान कहते हैं कि तुम मेरे परम मित्र हो अतएव फिर से परम गोपनीय रहस्य मेरे से सुनो और फिर जो भी आपका मन कहे  वही करो उसके बाद मैं युद्ध सम्बन्धी बात नहीं करुंगा। अब अर्जुन सावधान हो गया और तब भगवान अत्यन्त गोपनीय रहस्य अर्जुन को बताते हैं।
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झूठा बेटा

"मम्मी , मम्मी ! मैं उस बुढिया के साथ स्कुल नही जाउँगा ना ही उसके साथ वापस आउँगा " मेरे दस वर्ष के बेटे ने गुस्से से अपना स्कुल बैग फेकतै हुए कहा तो मैं बुरी तरह से चौंक गई !

यह क्या कह रहा है? अपनी दादी को बुढिया क्यों कह रहा है? कहाँ से सीख रहा है इतनी बदतमीजी?

मैं सोच ही रही थी कि बगल के कमरे से उसके चाचा बाहर निकले और पुछा-"क्या हुआ बेटा?"

उसने फिर कहा -"चाहे कुछ भी हो जाए मैं उस बुढिया के साथ स्कुल नहीं जाउँगा हमेशा डाँटती रहती है और मेरे दोस्त भी मुझे चिढाते हैं !"

घर के सारे लोग उसकी बात पर चकित थे
घर मे बहुत सारे लोग थे मैं और मेरे पति, दो देवर और देवरानी , एक ननद , ससुर और नौकर भी !

फिर भी मेरे बेटे को स्कुल छोडने और लाने की जिम्मेदारी उसकी दादी की ही थी पैरों मे दर्द रहता था पर पोते के प्रेम मे कभी शिकायत नही करती थी बहुत प्यार करती थी उसको क्योंकि घर का पहला पोता था।

पर अचानक बेटे के मुँह से उनके लिए ऐसे शब्द सुन कर सबको बहुत आश्चर्य हो रहा था शाम को खाने पर उसे बहुत समझाया गया पर वह अपनी जिद पर अडा रहा 


पति ने तो गुस्से मे उसे थप्पड़ भी मार दिया तब सबने तय किया कि कल से उसे स्कुल छोडने और लेने माँजी नही जाएँगी !!!

अगले दिन से कोई और उसे लाने ले जाने लगा पर मेरा मन विचलित रहने लगा कि आखिर उसने ऐसा क्यों किया?
मै उससे कुछ नाराज भी थी !

शाम का समय था मैने दुध गर्म किया और बेटे को देने के लिए उसे ढुँढने लगी मैं छत पर पहुँची तो बेटे के मुँह से मेरे बारे मे बात करते सुन कर मेरे पैर ठिठक गये...
मैं छुपकर उसकी बात सुनने लगी वह अपनी दादी के गोद मे सर रख कर कह रहा था-

"मैं जानता हूँ दादी कि मम्मी मुझसे नाराज है पर मैं क्या करता?
इतनी ज्यादा गरमी मे भी वो आपको मुझे लेने भेज देते थे ! आपके पैरों मे दर्द भी तो रहता है मैने मम्मी से कहा तो उन्होंने कहा कि दादी अपनी मरजी से जाती हैं !
दादी मैंने झुठ बोला......बहुत गलत किया पर आपको परेशानी से बचाने के लिये मुझे यही सुझा...

आप मम्मी को बोल दो मुझे माफ कर दे "

वह कहता जा रहा था और मेरे पैर तथा मन सुन्न पड़ गये थे मुझे अपने बेटे के झुठ बोलने के पीछे के बड़प्पन को महसुस कर गर्व हो रहा था....
मैने दौड कर उसे गले लगा लिया और बोली-"नहीं , बेटे तुमने कुछ गलत नही किया

हम सभी पढे लिखे नासमझो को समझाने का यही तरीका था..शाबाश... बेटा !!!

परमात्मा भाग-4

श्रीमद्भागवत महापुराण में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि :-

योगास्त्रयो मया प्रोक्ता नृणां श्रेयोविधित्सया।
ज्ञानं कर्म च भक्तिश्च नोपायोऽन्योऽस्ति कुत्रचित्।।

भगवान कहते हैं कि मैने ही वेदो में एवं अन्यत्र भी मनुष्यो का कल्याण करनेके लिए तीन प्रकार के योगों का उपदेश किया है। (1)कर्म (2) ज्ञान (3)भक्ति। मनुष्यो के परम कल्याण के लिए इनके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय कहीं नहीं है।

(1)- कर्म चार प्रकार के महापुरुषो ने बताये है। 1- कर्म धर्म 2- विकर्म 3- अकर्म 4- कर्म सन्यास।

(1)- कर्म धर्म, ऐसे कर्म धर्म वेदशास्त्रो के नियम का पालन करते हुए तो किये जाते हैं परन्तु ये कर्म भगवान को समर्पित करके नहीं किये जाते, इस लिए महापुरुष कहते हैं कि ऐसे कर्म भी नश्वर होते हैं और ऐसे कर्मो का फल भी नश्वर होता है। इसकी पुष्टि स्वयं वेदशास्त्र ही करते हैं।

इष्टापूर्तं मन्यमाना वरिष्ठंनान्यच्छ्रेयो वेदयन्ते प्रमूढाः।
नाकस्य पृष्ठे ते सुकृतेऽनुभूत्वेमं लोकं हीनतरं वा विशन्ति।।

भावार्थ यह है कि वेद और स्मृति आदि शास्त्रो में सांसारिक सुखो की प्राप्ति के जितने भी साधन बताये गये हैं उन्हीं को सर्वश्रेष्ठ कल्याण के साधन मानते हैं ऐसे लोग महामूर्ख  होते हैं। अतः वे अपने पुण्य कर्मो के फलस्वरूप स्वर्गलोकतक के सुखों को भोगकर पुण्य समाप्त होने पर पुनः इस मनुष्य लोक में अथवा इससे भी नीची कुत्ता, गधा, बिल्ली, सुअर,साँप बिच्छू आदि योनियो में या रौरवादि घोर नरको में चले जाते हैं।

जो कर्म वेदशास्त्रो के नियम का पालन करते हुए तो किये जाते हैं परन्तु परमात्मा को समर्पित करके नहीं किये जाते हैं तो ऐसे कर्म भी नश्वर है और इन कर्मो का फल भी नश्वर है,इसकी पुष्टि भी वेदशास्त्रो से की गई। रामायण भी इसकी पुष्टि करती है :-

सौ सुख करमु धरमु जरि जाहु।
जो न राम पद पंकज भाऊ  ।।

भावार्थ यह है कि ऐसे कर्म धर्म और उनसे मिलने वाला सुख आग में जल जायें जिन कर्म धर्म से भगवान के चरणों में अनुराग नहीं होता। कुल मिलाकर  ऐसे कर्म धर्म हमारे किसी काम के नहीं है।

(2)- विकर्म - विकर्म ऐसे कर्म है कि जो न तो वेदशास्त्रो के नियम का पालन करते हुए किये है और न ही भगवान को समर्पित करके किये जाते हैं, ऐसे कर्मो के फल से विभिन्न नर्को की प्राप्ति होती है। ऐसे कर्मो के द्वारा जीव कीट पतंग योनियो में जाता है।

अब तक कर्म मार्ग में कर्म धर्म व विकर्म पर बहुत ही संक्षेप में चर्चा  की गई अब बिन्दू संख्या 3 अकर्म  पर चर्चा  करते हैं।

(3)- अकर्म :   वास्तव में अकर्म से ही ईश्वर प्राप्ति होती है। कर्म का मतलब है करना और अकर्म का मतलब है कुछ नहीं करना । अब आपके मन में यह प्रश्न अवश्य ही उठ रहा होगा कि जब कुछ करना ही नहीं है तो परमात्मा की प्राप्ति कैसे हो जायेगी  ?  हाँ यह बात 100 प्रतिशत सत्य है कि अकर्म से ही ईश्वर प्राप्ति होगी। यह एक गोपनीय रहस्य है। हम कर्म करते हैं तो उन कर्मो का फल मिलता है

अच्छा कर्म करेंगे तो अच्छा फल मिलेगा और पाप कर्म करेंगे तो बुरा फल मिलेगा और दोनों तरह के कर्मो का फल भोगने के लिए जन्म तो लेना ही पड़ेगा। निष्कर्ष यह निकला कि चाहे बड़े से बड़ा पुण्य कर्म करो या बड़े से बड़ा पाप कर्म करो, जन्म-मृत्यु छुटकारा नहीं मिलता और यदि न तो अच्छे कर्म करो और न बुरे कर्म करो तो न अच्छा फल मिलेगा और न बुरा फल मिलेगा और जब हमारे जीवन के खाते में  किसी भी कर्म का फल होगा  ही नहीं तो कर्म फल भोगने के लिए जन्म ही नहीं लेना पड़ेगा और जब जन्म ही नहीं होगा तो मृत्यु तो होगी ही नहीं, हो गया न जन्म-मृत्यु से छुटकारा। लेकिन भगवत गीता तो कहती है कि -

न हि कशिचतक्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत।

भावार्थ यह है कि ब्रह्मांड में कोई भी व्यक्ति एक क्षण को भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता  कर्म करना मनुष्य की मजबूरी है।