ज्ञान योग
वास्तव में ज्ञान योग पूर्णतः जीव कल्याण के लिए सक्षम है परन्तु है बहुत कठिन मार्ग। क्योंकि ज्ञान मार्ग में मनुष्य को ब्रह्म के उस स्वरूप का ध्यान करना है जिसका न कोई आकार है, न कोई रूप है, न कोई नाम है। इसके अलावा त्रिगुणात्मक माया के आधीन मनुष्य की इंद्रीय, मन, बुद्धि भी मायिक होती हैं और मायिक इंद्रीय, मन, बुद्धि से माया से परे निराकार ब्रह्म का ध्यान करना असम्भव जैसा है क्योंकि प्राकृतिक इंद्रीय मन बुध्दि का सेवा कर्म माया का एरिया ही है माया से परे प्राकृतिक इंद्रीय मन बुध्दि की पहुँच नहीं है। रामायण कहती है कि -
कहत कठिन समुझत कठिन साधत कठिन विवेक।
होई घुनाच्छर न्याय जो पुनः प्रत्युह अनेक।।
भावार्थ यह है कि ज्ञान योग कहने में कठिन समझाना व समझना कठिन है और इस मार्ग की साधना भी कठिन है। यदि इस मार्ग पर कोई साधक चल भी पड़ा तो बार बार गिर पड़ता है। आगे रामायण कहती है कि -
ज्ञान पंथ कृपान कै धारा।
परत खगेश न लागई बारा।।
कागभुसण्डी जी गरूड़ जी से कहते हैं कि ज्ञान मार्ग तलवार की धार जैसा है इस मार्ग में मनुष्य को गिरते देर नहीं लगती ।
ज्ञान मार्ग और परमात्मा के मिलन में माया प्रकृति ही वास्तविक और सबसे बड़ी बाधा है। ज्ञान मार्ग का साधक जब साधना आदि करते हुए अपने ज्ञान मार्ग पर चलता है तो उसका अपना बल होता है और यही कारण है कि उसे अपने ज्ञान का अहंकार हो जाता है और वह समझता है कि उसे भगवान की कृपा की आवश्यकता नहीं है बस यही मौका पाकर माया ज्ञानी का पतन कर देती है, बड़े बड़े सन्तो का माया प्रकृति के द्वारा पतन होते हुए देखा गया है, क्योंकि ज्ञानी को अपने बल पर साधना आदि करके ज्ञान मार्ग पर चलना होता है अब चूँकि माया उससे अधिक बलवान है इस लिए उस साधक का पतन कर देती है। ऐसे साधक के ब्रह्म ज्ञान होने तक माया उसका साथ नहीं छोड़ती इस लिए यह मार्ग बहुत कठिन है।
वास्तव में ज्ञान योग पूर्णतः जीव कल्याण के लिए सक्षम है परन्तु है बहुत कठिन मार्ग। क्योंकि ज्ञान मार्ग में मनुष्य को ब्रह्म के उस स्वरूप का ध्यान करना है जिसका न कोई आकार है, न कोई रूप है, न कोई नाम है। इसके अलावा त्रिगुणात्मक माया के आधीन मनुष्य की इंद्रीय, मन, बुद्धि भी मायिक होती हैं और मायिक इंद्रीय, मन, बुद्धि से माया से परे निराकार ब्रह्म का ध्यान करना असम्भव जैसा है क्योंकि प्राकृतिक इंद्रीय मन बुध्दि का सेवा कर्म माया का एरिया ही है माया से परे प्राकृतिक इंद्रीय मन बुध्दि की पहुँच नहीं है। रामायण कहती है कि -
कहत कठिन समुझत कठिन साधत कठिन विवेक।
होई घुनाच्छर न्याय जो पुनः प्रत्युह अनेक।।
भावार्थ यह है कि ज्ञान योग कहने में कठिन समझाना व समझना कठिन है और इस मार्ग की साधना भी कठिन है। यदि इस मार्ग पर कोई साधक चल भी पड़ा तो बार बार गिर पड़ता है। आगे रामायण कहती है कि -
ज्ञान पंथ कृपान कै धारा।
परत खगेश न लागई बारा।।
कागभुसण्डी जी गरूड़ जी से कहते हैं कि ज्ञान मार्ग तलवार की धार जैसा है इस मार्ग में मनुष्य को गिरते देर नहीं लगती ।
ज्ञान मार्ग और परमात्मा के मिलन में माया प्रकृति ही वास्तविक और सबसे बड़ी बाधा है। ज्ञान मार्ग का साधक जब साधना आदि करते हुए अपने ज्ञान मार्ग पर चलता है तो उसका अपना बल होता है और यही कारण है कि उसे अपने ज्ञान का अहंकार हो जाता है और वह समझता है कि उसे भगवान की कृपा की आवश्यकता नहीं है बस यही मौका पाकर माया ज्ञानी का पतन कर देती है, बड़े बड़े सन्तो का माया प्रकृति के द्वारा पतन होते हुए देखा गया है, क्योंकि ज्ञानी को अपने बल पर साधना आदि करके ज्ञान मार्ग पर चलना होता है अब चूँकि माया उससे अधिक बलवान है इस लिए उस साधक का पतन कर देती है। ऐसे साधक के ब्रह्म ज्ञान होने तक माया उसका साथ नहीं छोड़ती इस लिए यह मार्ग बहुत कठिन है।
जीवन का मर्म है इस लेख में! 🙏
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