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Saturday, April 6, 2019

परमात्मा भाग-5

चर्चा अकर्म कर्म की चल रही है। एक तरफ तो शास्त्र कहते हैं कि निःसन्देह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृतिजनित  गुणो द्वारा परबस हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है। कर्म करना ही पड़ता है। कर्म क्यों करना पड़ता है यह भी एक बड़ा रहस्य है। इस रहस्य के बारे में मैं पहले बता चुका हूँ दोबारा बाद में कभी इस सम्बन्ध में चर्चा अवश्य करेंगे। हाँ तो बात यह चल रही थी कि कर्म करें तो जन्म - मरण होता है और कर्म न करे तो ईश्वर प्राप्ति होती है अजीब पहेली है। ऐसी दशा में हम शास्त्रों  को आधार मानकर ही इस पहेली को सुलझा सकते है। शास्त्र कहते हैं कि " मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयोः " मन ही है मनुष्यो के बन्धन और मुक्ति का कारण,  अच्छे बुरे समस्त कर्म मन के द्वारा ही होते हैं। महापुरुष कहते हैं कि परमात्मा मन से किये  हुए कर्मो को ही नोट करते हैं अन्य इंद्रीयो का वर्क भगवान नोट नहीं करते।

धर्म, विकर्म, अकर्म, कर्मसन्यास, ये सब कर्म मन के द्वारा ही होते हैं। ये मन जब तक हमारे साथ रहकर अथवा हमें बहकावे में डालकर माया सम्बन्धी कर्म करता रहेगा तब जन्म - मरण की प्रक्रिया चलती रहेगी। यदि हम किसी वास्तविकता मायातीत महापुरुष के कहने से अपने मन को परमात्मा को समर्पित करदे तदुपरांत हमारे द्वारा किये गये समस्त कर्म अकर्म में बदल जायेगें। अर्जुन ने महाभारत में जब युद्ध करने के लिए श्रीकृष्ण से साफ मना कर दिया तब भगवान श्रीकृष्ण ने यही ज्ञान अर्जुन को दिया था -

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्ध च। मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्।।

हे अर्जुन तू अपने मन  से हर समय मेरा ही चिन्तन करते हुए युद्ध कर ऐसा करने से युद्ध रूपी कर्म करने के साथ - साथ निसन्देह  ही मुझे प्राप्त कर लेगा।

मय्यर्पितमनोबुद्धिः -- भगवान को मन और बुद्धि अर्पित करने का साधारण अर्थ है कि मन से परमात्मा का चिन्तन हो और बुद्धि से परमात्मा का निश्चय किया जाये। परन्तु इसका वास्तविक अर्थ है -- मन, बुद्धि, इंद्रीया, शरीर आदि को भगवान के ही मानना, कभी भूल से भी इनको अपने न मानना ।

अपने आप जो कर्म करता है वह कर्म है उसका फल है जन्म - मरण और जीव का जो कर्म स्वयं भगवान करते हैं  वह कर्म अकर्म होता है उस कर्म का फल ईश्वर प्राप्ति है। इसको प्रमाणित करने के लिए भगवत गीता का सहारा लेते हैं। भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को 18 अध्याय 700 श्लोक भगवत गीता  में ज्ञान दिया परन्तु अर्जुन को युद्ध कर्म के फल का डर लग रहा था । भगवान श्री कृष्ण के द्वारा समस्त प्रयास करने पर भी जब अर्जुन युद्ध करने को तैयार नहीं हुआ तब भगवान अन्तिम ब्रह्मास्त्र रूपी वचन अर्जुन से कहते हैं कि --

सर्वगुह्यतम भूयः श्रृणु मे परमं वचः ।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्ययामि ते हितम।।

भगवान कहते हैं कि तुम मेरे परम मित्र हो अतएव फिर से परम गोपनीय रहस्य मेरे से सुनो और फिर जो भी आपका मन कहे  वही करो उसके बाद मैं युद्ध सम्बन्धी बात नहीं करुंगा। अब अर्जुन सावधान हो गया और तब भगवान अत्यन्त गोपनीय रहस्य अर्जुन को बताते हैं।
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