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Sunday, July 14, 2019

परमात्मा भाग 19

न रोधयति मां योगो न सांख्यं धर्म एव च।
न स्वाध्यायस्तपस्तयागो नेष्टापूर्त न दक्षिणा।।

व्रतानि यज्ञश्छन्दांसि तीर्थानि नियमा यमाः।
यथावरुन्धे सत्संगः सर्वसंगापहो हि माम्।।

भगवान श्री कृष्ण उद्धव से कहते हैं कि हे प्रिय उद्धव संसार में जितनी आसक्तियाँ हैं, उन्हें सत्संग नष्ट कर देता है। यही करण है कि सत्संग जिस प्रकार मुझे वश में कर लेता है वैसा साधन न तो योग है ,न सांख्य , न धर्मपालन और न स्वध्याय ,तपस्या, त्याग, इष्टापूर्त और दक्षिणा से भी मैं वैसा प्रसन्न नहीं होता। कहाँ तक कहूँ - व्रत, यज्ञ, वेद, तीर्थ और यम नियम भी  सत्संग के समान मुझे वश में नहीं करसकते। नारद जी अपने 19 वे  भक्तिसूत्र में लिखते है कि -

"नारदस्तु  तदार्पिताखिलाचारिता तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति। "

नारद जी कहते हैं कि  अपने समस्त कर्मो को भगवान को अर्पण करना और भगवान का  थोड़ा सा भी विस्मरण होने पर परम व्याकुल होना ही भक्ति है।

सबसे सुलभ साधन भक्ति योग है। नारद जी अपने 48 वें भक्ति सूत्र में कहते हैं कि -

" अन्यस्मात सौलभ्यं भक्तौ "

जितने साधन हैं उन सब की अपेक्षा भक्ति ही सुलभ है। भक्ति की प्राप्ति में न तो विद्या की आवश्यकता है न धन की आवश्यकता है और न उच्चवर्णाश्रम की, न श्रेष्ठ कुल की आवश्यकता है, न कठोर तप की आवश्यकता है, न वेदाध्यन की आवश्यकता है। केवल सरल भाव से भगवान की अपार कृपा पर विश्वास करके उनका सतत प्रेमभावसे स्मरण करने की आवश्यकता है।

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूस्वाम।।

ये वेद मन्त्र कह रहा है कि परमात्मा न तो उसको मिलते हैं जो शास्त्रो को पढ़ सुनकर लच्छेदार भाषा में ईश्वर का नाना प्रकार से वर्णन करके प्रवचन करते हैं, और न उनको ही मिलते हैं जो अपनी बुद्धि के अभिमान में  पागल होकर तर्क के द्वारा समझाने की चेष्टा करते हैं और न उनको ही मिलते हैं जो बहुत कुछ सुनते सुनाते रहते हैं, कमाल की  बात है तो प्रभु आप ही बतायें कि आप किसको मिलते हैं तो परमात्मा कहते हैं कि मैं केवल उसी को मिलता हूँ जिसको मैं स्वीकार कर लेता हूँ, जिसको मैं अपना मानकर अपना लेता हूँ और मैं उसी को स्वीकार करता हूँ, अपना मानता हूँ जो मेरे बिना रह नहीं सकता। जो मेरी कृपा की प्रतीक्षा करता है। ऐसे कृपा निर्भर  भक्त पर मैं सदैव कृपा करता हूँ और योगमाया का पर्दा हटाकर उस भक्त के सामने अपने सच्चिदानन्दघन स्वरूप में प्रकट हो जाता हूँ।

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