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Monday, April 15, 2019

परमात्मा भाग-15

 ईश्वर प्राप्ति हेतु शरणागति ही वो ब्रह्मास्त्र है जिसके बिना जीव ईश्वर प्राप्ति का अपना लक्ष्य नहीं पा सकता है। मानव को भगवान की कथा उनकी लीलायें पढ़नी हैं, सुननी हैं, सुनानी है।  जीव या तो भगवान की शरण में जा सकता है या फिर त्रिगुणात्मक माया प्रकृति की शरण ग्रहण करनी होगी दोनों की शरणागति एक साथ नहीं हो सकती। वर्तमान में हम 100 प्रतिशत त्रिगुणात्मक माया प्रकृति की ही शरण ग्रहण किए हुए हैं अब हमें इस त्रिगुणात्मक माया प्रकृति की शरण छोड़कर परमात्मा की शरण में जाना है इसमें सर्वप्रथम हमें अपने आप को जानने का प्रयास करना है क्योंकि जब तक हम इस स्थूल शरीर को ही अपना स्वरूप मानते रहेगें तब तक परमात्मा की ओर चलना असम्भव है। हम अपने आप को जब तक यह मानते रहेंगे कि यह भौतिक शरीर ही हमारा स्वरूप तब तक शरीर और संसार की कामना उत्पन्न होती रहेगीं और ये एक ऐसा रोग है जिसका इलाज केवल परमात्मा के पास ही है, संसार में इसका इलाज कहीं भी नहीं है, एक कामना पूर्ण होते ही दूसरी कामना तत्काल उत्पन्न हो जायगी इसी को माया कहते हैं, जीवात्मा अनादिकाल से इसी मायाजाल में फंसा हुआ है। अब इन कामनाओ को छोड़ना होगा।
" बहुत तड़फाया है इन कामनाओ  ने हमको अब इन कामनाओ को तड़फता छोड़ दो "
           

Sunday, April 14, 2019

रिश्ते बच जाते हैं

सुबह सुबह पति पत्नी में झगड़ा हो गया,

पत्नी गुस्से मे बोली - बस, बहुत कर लिया बरदाश्त, अब एक मिनट भी तुम्हारे साथ नही रह सकती।

पति भी गुस्से मे था, बोला "मैं भी तुम्हे झेलते झेलते तंग आ चुका हुं।

पति गुस्से मे ही दफ्तर चला गया पत्नी ने अपनी मां को फ़ोन किया और बताया कि वो सब छोड़ छाड़ कर बच्चो समेत मायके आ रही है, अब और ज़्यादा नही रह सकती इस नरक मे।

मां ने कहा - बेटी बहु बन के आराम से वही बैठ, तेरी बड़ी बहन भी अपने पति से लड़कर आई थी, और इसी ज़िद्द मे तलाक लेकर बैठी हुई है, अब तुने वही ड्रामा शुरू कर दिया है, ख़बरदार जो तुने इधर कदम भी रखा तो... सुलह कर ले पति से, वो इतना बुरा भी नही है।

मां ने लाल झंडी दिखाई तो बेटी के होश ठिकाने आ गए और वो फूट फूट कर रो दी, जब रोकर थक गई तो दिल हल्का हो चुका था,

पति के साथ लड़ाई का सीन सोचा तो अपनी खुद की भी काफ़ी गलतियां नज़र आई।

मुहं हाथ धोकर फ्रेश हुई और पति के पसंद की डीश बनाना शुरू कर दी, और साथ स्पेशल खीर भी बना ली, सोचा कि शाम को पति से माफ़ी मांग लुंगी, अपना घर फिर भी अपना ही होता है।

पति शाम को जब घर आया तो पत्नी ने उसका अच्छे से स्वागत किया, जैसे सुबह कुछ हुआ ही ना हो पति को भी हैरत हुई। खाना खाने के बाद पति जब खीर खा रहा था तो बोला डिअर, कभी कभार मैं भी ज़्यादती कर जाता हूँ, तुम दिल पर मत लिया करो, इंसान हूँ, गुस्सा आ ही जाता है।

पति पत्नी का शुक्रिया अदा कर रहा था, और पत्नी दिल ही दिल मे अपनी मां को दुआएं दे रही थी, जिसकी सख़्ती ने उसको अपना फैसला बदलने पर मजबूर किया था, वरना तो जज़्बाती फैसला घर तबाह कर देता।

अगर माँ-बाप अपनी शादीशुदा बेटी की हर जायज़ नाजायज़ बात को सपोर्ट करना बंद कर दे तो रिश्ते बच जाते है।

चुनाव 2019

मैं एक सप्ताह पहले ही मायावती के चुनाव के बाद NDA में शामिल होने के बारे में फेसबुक पर एक लाइन की पोस्ट डाल चुका हूं।

बात ये है, कि कांग्रेस तो कहीं आएगी ही नही। ठगबंधन को जरूर कुछ सीट मिलेंगी लेकिन सरकार बनाने की कुब्बत ठगबंधन में नहीं होगी। मायावती ठगबंधन की बजह से 2014 से बेहतर स्थिति में होगी। अगर उसे अस्तित्व बचाये रखना है तो उसे BJP/NDA का सहारा लेना पड़ेगा और नही लेगी सहारा तो ED और CBI जिंदाबाद।

मायावती का वोटबैंक भी इस चाल से वाकिफ है, इसलिए जहां गठबंधन का उमीदवार BSP का नहीं है वहां वे भाजपा को वोट कर रहे है। इन शतरंजी चालों को मुस्लिम और यादव वोटर समझने में नाकाम रहे हैं, और उत्तरप्रदेश की अनेकों सीटों पर ठगबंधन के समाजवादी  उम्मीदवारो को केवल मुस्लिम और यादव वोट ही मिलने के कारण उन्हें करारी हार का मुंह देखना पड़ेगा तथा कोर भाजपा वोट के साथ साथ दलित वोट भी मिलने के कारण भाजपा उम्मीदवार जीत का परचम लहरायेंगे।


भार, आयतन व दूरी कन्वर्शन तालिका




ऑनलाइन पैसा

जब ऑनलाइन पैसा कमाने की बात आती है, तो यह तय करना काफी मुश्किल हो सकता है कि क्या सही है और क्या गलत है। बहुत से लोग विभिन्न पाठ्यक्रमों को बेच रहे हैं जो कि चाँद और सितारों को तोड़ लाने का वायदा करते हैं, लेकिन एक बार जब आप वास्तविकता से रूबरू होते है तो उनमें से अधिकांश को छोड़ देते है।

इस लेख में, मैं आपको अपनी खुद की वेबसाइट पर ऑनलाइन पैसे कमाने के बारे में 10 सच बताऊंगा।

(1)सफलता कैसे मिले, इसकी कोई गाइड नहीं है
(2)यह कोई बहाना नहीं है कि आपके पास काम करने की पृष्ठभूमि या अनुभव नहीं है
(3)एक मुफ्त समाधान चुनना आपको महंगा पड़ सकता है
(4) आपका ज्ञान आपके विचार से अधिक मूल्यवान है
(5) दुनियाभर में आपके समय की कोई कीमत नही है
(6) उन स्थानों को लक्षित करना सुनिश्चित करें जहां अन्य सफलतापूर्वक पकड़ बना लेते हैं
(7) गलतियां करें, उनसे सीख ले और उनही दोहराया न जाये
(8) अकेले कार्य करना कठिन है
(9)अनावश्यक सेवाओं वट्रैफ़िक कहां से आ रहा है, इसके बीच बहुत बड़ा अंतर है मशीनरी की खरीद न करे
(10)ट्रैफ़िक कहां से आ रहा है, इसके बीच बहुत बड़ा अंतर है

परमात्मा भाग-14

 ईश्वर प्राप्ति हेतु शरणागति ही वो ब्रह्मास्त्र है जिसके बिना जीव ईश्वर प्राप्ति का अपना लक्ष्य नहीं पा सकता है। शरणागति केवल मन को ही करनी है और मन पर अनादिकाल से त्रिगुणात्मक माया प्रकृति का पक्का रंग चढ़ा हुआ है  ऐसा मन भगवान में नहीं लगेगा ऐसे में हमें गुरु की आवश्यकता है, जो अपनी कृपा से हमारे गन्दे मन को परमात्मा में लगाने में मदद करें। महापुरुष का संग तो आवश्यक है ही और ऐसा कोई महापुरुष दूर दूर तक नजर नहीं आ रहा जो केवल ईश्वर सम्बन्धी ही बात करे इस लिये समस्या बहुत जटिल है।  इस स्थिति से निपटने के लिए भगवान के दरवाजे पर ही दस्तक  देनी चाहिए और एकाग्र मन से प्रार्थना करनी चाहिए कि हे प्रभु आप ही निराकार हैं आप ही साकार हैं आप किसी के पुत्र बनते हैं तो किसी के पिता बनते हैं ,किसी के मित्र बनते हैं तो किसी के गुरु भी बने हैं, मैं सब ओर से निराश  होकर आपके पास आया हूँ आप या तो किसी अपने जैसे गुरु के पास मुझे भेज दें या फिर आप स्वयं ही मेरे गुरु बन जायें।

जैसे बन्जर भूमि में सैंकड़ों साल से कुछ भी अनाज पैदा नहीं हुआ तो उस बन्जर भूमि में यदि हम अनाज उगाना चाहें तो हमें बड़ी मेहनत करनी पड़ेगी, प्रारम्भ में इच्छा न होते हुए भी उस भूमि पर हल चलाना, पानी देना, खाद डालना ये सब करना होगा फिर भी गारन्टी नहीं कि कामयाबी मिलेगी  ही, लेकिन हमें निराश नहीं होना है, बार-बार मेहनत करेंगे तो एक दिन  कामयाबी मिलेगी ही। ठीक इसी प्रकार अनादिकाल से हमारे अन्तःकरण में त्रिगुणात्मक माया प्रकृति का मैल चढ़ा हुआ है, ऐसे गन्दे अन्तःकरण में एक पल के लिए भी ईश्वर सम्बन्धी बातें नहीं ठहर सकती, ऐसी दशा में हमें इच्छा न होते हुए भी भगवान की कथा, उनकी लीला पढ़नी हैं, सुननी हैं, सुनानी  हैं। रामायण कहती है कि -

बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मौह न भाग।
मौह गये बिनु रामपद होई न दृढ अनुराग।।

ईश्वर की लीलाऐं कथा, सतसंग इच्छा न होते हुए भी लगातार सुनने से हमारे अन्तःकरण में हलचल होने लगती है। 

Saturday, April 13, 2019

पुरुषोत्तम राम

एकटक देर तक उस सतपुरुष को निहारते रहने के बाद बुजुर्ग भीलनी के मुंह से बोल निकले :

"कहो राम! सबरी की डीह ढूंढ़ने में अधिक कष्ट तो नहीं हुआ?"

राम मुस्कुराए: "यहां तो आना ही था मां, कष्ट का क्या मूल्य...?"

    "जानते हो राम! तुम्हारी प्रतीक्षा तब से कर रही हूँ जब तुम जन्में भी नहीं थे। यह भी नहीं जानती थी कि तुम कौन हो? कैसे दिखते हो? क्यों आओगे मेरे पास..? बस इतना पता था कि कोई पुरुषोत्तम आएगा जो मेरी प्रतीक्षा का अंत करेगा..."

राम ने कहा: "तभी तो मेरे जन्म के पूर्व ही तय हो चुका था कि राम को सबरी के आश्रम में जाना है।"

     "एक बात बताऊँ प्रभु! भक्ति के दो भाव होते हैं। पहला मर्कट भाव, और दूसरा मार्जार भाव।

बन्दर का बच्चा अपनी पूरी शक्ति लगाकर अपनी माँ का पेट पकड़े रहता है ताकि गिरे न... उसे सबसे अधिक भरोसा माँ पर ही होता है और वह उसे पूरी शक्ति से पकड़े रहता है। यही भक्ति का भी एक भाव है, जिसमें भक्त अपने ईश्वर को पूरी शक्ति से पकड़े रहता है। दिन रात उसकी आराधना करता है........

".....पर मैंने यह भाव नहीं अपनाया। मैं तो उस बिल्ली के बच्चे की भाँति थी जो अपनी माँ को पकड़ता ही नहीं, बल्कि निश्चिन्त बैठा रहता है कि माँ है न, वह स्वयं ही मेरी रक्षा करेगी, और माँ सचमुच उसे अपने मुँह में टांग कर घूमती है... मैं भी निश्चिन्त थी कि तुम आओगे ही, तुम्हे क्या पकड़ना...।"

राम मुस्कुरा कर रह गए।

भीलनी ने पुनः कहा: "सोच रही हूँ बुराई में भी तनिक अच्छाई छिपी होती है न... कहाँ सुदूर उत्तर के तुम, कहाँ घोर दक्षिण में मैं। तुम प्रतिष्ठित रघुकुल के भविष्य, मैं वन की भीलनी... यदि रावण का अंत नहीं करना होता तो तुम कहाँ से आते?"

राम गम्भीर हुए। कहा:

"भ्रम में न पड़ो मां! राम क्या रावण का वध करने आया है?
......... अरे रावण का वध तो लक्ष्मण अपने पैर से बाण चला कर कर सकता है।

......... राम हजारों कोस चल कर इस गहन वन में आया है तो केवल तुमसे मिलने आया है मां, ताकि हजारों वर्षों बाद जब कोई पाखण्डी भारत के अस्तित्व पर प्रश्न खड़ा करे तो इतिहास चिल्ला कर उत्तर दे कि इस राष्ट्र को क्षत्रिय राम और उसकी भीलनी माँ ने मिल कर गढ़ा था।

............ जब कोई कपटी भारत की परम्पराओं पर उँगली उठाये तो काल उसका गला पकड़ कर कहे कि नहीं! यह एकमात्र ऐसी सभ्यता है जहाँ...... एक राजपुत्र वन में प्रतीक्षा करती एक दरिद्र वनवासिनी से भेंट करने के लिए चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार करता है।

.......... राम वन में बस इसलिए आया है ताकि जब युगों का इतिहास लिखा जाय तो उसमें अंकित हो कि सत्ता जब पैदल चल कर समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुँचे तभी वह रामराज्य है।

............ राम वन में इसलिए आया है ताकि भविष्य स्मरण रखे कि प्रतीक्षाएँ अवश्य पूरी होती हैं। राम रावण को मारने भर के लिए नहीं आया मां...!"

      सबरी एकटक राम को निहारती रहीं।

 राम ने फिर कहा:

"राम की वन यात्रा रावण युद्ध के लिए नहीं है माता! राम की यात्रा प्रारंभ हुई है भविष्य के लिए आदर्श की स्थापना के लिए।

........... राम निकला है ताकि विश्व को बता सके कि माँ की अवांछनीय इच्छओं को भी पूरा करना ही 'राम' होना है।

.............. राम निकला है कि ताकि भारत को सीख दे सके कि किसी सीता के अपमान का दण्ड असभ्य रावण के पूरे साम्राज्य के विध्वंस से पूरा होता है।

.............. राम आया है ताकि भारत को बता सके कि अन्याय का अंत करना ही धर्म है,

............  राम आया है ताकि युगों को सीख दे सके कि विदेश में बैठे शत्रु की समाप्ति के लिए आवश्यक है कि पहले देश में बैठी उसकी समर्थक सूर्पणखाओं की नाक काटी जाय, और खर-दूषणों का घमंड तोड़ा जाय।

......और,

.............. राम आया है ताकि युगों को बता सके कि रावणों से युद्ध केवल राम की शक्ति से नहीं बल्कि वन में बैठी सबरी के आशीर्वाद से जीते जाते हैं।"

सबरी की आँखों में जल भर आया। उसने बात बदलकर कहा: "बेर खाओगे राम?

राम मुस्कुराए, "बिना खाये जाऊंगा भी नहीं मां..."

सबरी अपनी कुटिया से छोटी सी टोकरी में बेर ले कर आई और राम के समक्ष रख दिया।

राम और लक्ष्मण खाने लगे तो कहा: "मीठे हैं न प्रभु?"

   "यहाँ आ कर मीठे और खट्टे का भेद भूल गया हूँ मां! बस इतना समझ रहा हूँ कि यही अमृत है...।"

  सबरी मुस्कुराईं, बोलीं: "सचमुच तुम मर्यादा पुरुषोत्तम हो, राम!"


गुरु

जीवन में हमें सबकुछ मालूम नहीं होता तो जो हमे मालूम नहीं है उसकी जानकारी लेने के लिए हमे गुरु की जरूरत होती है। परन्तु अब समस्या यह है कि गुरु कहाँ खोजे। किसी के बहकावे में आकर बिना सोचे समझे हम गुरु के पास चले गए बाद में पता चला कि महाराज जी हमसे भी कहीं अधिक माया में फंसे हुए हैं, तो हमारा तो ये मानव जीवन ही बर्बाद होगया। हमारे वेदों ने गुरु की पहचान बताई है कि :-

"तद्विज्ञानार्थ स गुरुमेवाभिगच्छेत्  समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्"

ये वेदमन्त्र बता रहा है कि गुरु शास्त्र वेदों का ज्ञाता हो साथ ही ब्रह्मनिष्ठ हो। ये दोनों शर्ते यदि कोई सन्तमहात्मा पूरी करता है तो तत्काल उसकी शरण में चले जाना चाहिए। 

परमात्मा भाग-13

शरणागति किसको करनी है। आत्मा के पास एक भौतिक शरीर है, कर्मइंद्रिया, ज्ञानइंद्रिया है  ,मन है, बुद्धि है, इनमें से किसको शरणागति करनी है। हमने स्थूल शरीर, इंद्रियां, बुद्धि भगवान को अर्पित कर दी तो क्या वास्तव में शरणागति हो जायेगी, नहीं क्योंकि सबसे बड़ी बीमारी तो हमारा मन है, अतः मन को ही शरणागति करनी है। क्योंकि मन ही बन्धन और मुक्ति का कारण है। अब समस्या यह है कि ये मन त्रिगुणात्मक माया प्रकृति की सन्तान है और अनादि काल से इस मन पर माया का मैल चढ़ा हुआ है तो ऐसे में मन को भगवान  के शरणागत करना असम्भव सा लगता है, क्योंकि जो भी आत्मा के पास है - जैसे इंद्रिया, मन, बुद्धि इनसबका निर्माण माया से ही हुआ है, इन इंद्रियों, मन, बुद्धि का  सेवाकर्म केवल त्रिगुणात्मक माया प्रकृति का एरिया ही है, माया से परे इनकी पहुँच नहीं है और परमात्मा माया से परे है। ऐसे में जो इंद्रियां, मन, बुद्धि आत्मा के पास हैं उनसे की गई साधना असली साधना नहीं है।

मन को माया और माया वाले ही अति प्रिय लगते हैं मायाधीन मन को भगवान कभी अच्छे नहीं लगेगें जैसे एक शराबी को दूध अच्छा नहीं लगता। अब ऐसे में जीव को तत्वज्ञान का होना अति आवशयक है, तभी जीवात्मा समझ पायेगा कि किधर जाने में उसका लाभ है । यदि जीवात्मा को संसार का आश्रय मिल जाय तो वो भगवान का आश्रय छोड़ देगा और यदि भगवान का आश्रय मिल जाये तो तत्काल संसार का छोड़ देगा एक तो छूटेगा ही दोनों रंग एक साथ नहीं चढ़ सकते हैं। ऐसे में गुरु की आवश्यकता तो  है। अब समस्या है कि गुरु कहाँ खोजे। किसी के बहकावे में आकर बिना सोचे समझे हम गुरु के पास चले गए बाद में पता चला कि महाराज जी हमसे भी कहीं अधिक माया में फंसे हुए हैं, तो हमारा तो ये मानव जीवन ही बर्बाद होगया। हमारे वेदों ने गुरु की पहचान बताई है कि :-

"तद्विज्ञानार्थ स गुरुमेवाभिगच्छेत्  समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्"

ये वेदमन्त्र बता रहा है कि गुरु शास्त्र वेदों का ज्ञाता हो साथ ही ब्रह्मनिष्ठ हो। ये दोनों शर्ते यदि कोई सन्तमहात्मा पूरी करता है तो तत्काल उसकी शरण में चले जाना चाहिए। 

परमात्मा भाग-12

शरणागत भक्त के कर्मफल का विधान परमात्मा समाप्त कर देते हैं इसकी पुष्टि भगवान श्री कृष्ण भगवत गीता में  इस श्लोक से करते हैं :-

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।

भावार्थ यह है कि भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को अन्तिम बात बताते हुए कहते हैं कि है अर्जुन तू समस्त प्रकार के धर्मो का परित्याग करके पूर्ण रूप से केवल मेरी ही शरण में आजा मैं तेरे समस्त कर्मो को ही समाप्त करके तेरा उद्धार कर दुंगा तू चिन्ता मत कर।

जो भक्त पूर्ण रूप से   भगवान की शरण में आ जाता है भगवान ऐसे अपने प्रिय भक्त की स्वयं देखरेख करते हैं और सदैव उसकी रक्षा करते हैं। इसकी पुष्टि गीता के इस श्लोक से होती है -

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम।।

भगवान कहते हैं कि जो भक्त अनन्यरूप से मेरी भक्ति करता है मैं उसकी सब तरह से रक्षा करता हूँ उसको फिर कभी मायाजाल में नहीं फसंने देता सदा के लिए उसका उद्धार कर देता हूँ।

परमात्मा अर्थात ईश्वर की कृपा प्राप्ति हेतु शरणागति ही वो ब्रह्मास्त्र है जिसके बिना जीव ईश्वर प्राप्ति का अपना लक्ष्य नहीं पा सकता । शरणागति से ईश्वर कृपा प्राप्त होगी और ईश्वर कृपा से ही जीव की मायानिवृत्ति होगी और मायानिवृत्ति होने पर तत्काल  लक्ष्य प्राप्ति सम्भव है। ईश्वर प्राप्ति का भक्तिमार्ग ही एक सही साधन है।
                   

Tuesday, April 9, 2019

परमात्मा भाग-11

 भगवान श्री कृष्ण भगवत गीता में  कहते हैं कि :-

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।

भावार्थ यह है कि भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को अन्तिम बात बताते हुए कहते हैं कि है अर्जुन तू समस्त प्रकार के धर्मो का परित्याग करके पूर्ण रूप से केवल मेरी ही शरण में आजा मैं तेरे समस्त कर्मो को ही समाप्त करके तेरा उद्धार कर दुंगा तू चिन्ता मत कर।

 जो भक्त पूर्ण रूप से   भगवान की शरण में आ जाता है भगवान ऐसे अपने प्रिय भक्त की स्वयं देखरेख करते हैं और सदैव उसकी रक्षा करते हैं। इसकी पुष्टि गीता के इस श्लोक से होती है -

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम।।

भगवान कहते हैं कि जो भक्त अनन्यरूप से मेरी भक्ति करता है मैं उसकी सब तरह से रक्षा करता हूँ उसको फिर कभी मायाजाल में नहीं फसंने देता सदा के लिए उसका उद्धार कर देता हूँ।
                 
ईश्वर की कृपा प्राप्ति हेतु शरणागति ही वो ब्रह्मास्त्र है जिसके बिना जीव ईश्वर प्राप्ति का अपना लक्ष्य नहीं पा सकता । शरणागति से ईश्वर कृपा प्राप्त होगी और ईश्वर कृपा से ही जीव की मायानिवृत्ति होगी और मायानिवृत्ति होने पर तत्काल  लक्ष्य प्राप्ति सम्भव है। ईश्वर प्राप्ति का यही एक सही साधन है और वो है भक्ति मार्ग। 

परमात्मा भाग-10

भगवत गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं -

मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्षयसि।।

भावार्थ है कि भगवान कहते हैं कि है अर्जुन तू पूर्णरूप से अपना मन मुझमें लगा दे तब तू मेरी कृपा से सम्पूर्ण विघ्नों से आसानी से तर जायेगा और यदि तू अहंकार के कारण मेरी बात नहीं सुनेगा तो निश्चित रूप से तेरा पतन हो जायेगा।

आगे  फिर भगवान शरणागति की  ही बात कहते हैं -

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्सयसि  शाश्वतम्।।

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन तू सर्वभाव से मेरी ही शरणागति को प्राप्त हो जा ऐसा करने से मेरी कृपा से अविनाशी परमपद अर्थात मेरे लोक परमधाम को प्राप्त कर लेगा जहां से फिर कोई लोटकर वापस नहीं आता।

जीवात्मा के द्वारा पूर्णरूप से परमात्मा के शरणागत होने पर ही   परमात्मा जीवात्मा पर कृपा करते हैं।  परमात्मा का एक रूप न्यायाधीश  है और एक रूप कृपालु है। न्यायाधीश के रूप में जीवात्मा के द्वारा किये गये कर्मो के विधान का   फैसला करते हैं और तद्नुसार कर्मो का फल देते हैं। कृपालु के रूप में कर्मविधान ही समाप्त हो जाता है, जिस जीवात्मा पर प्रभु कृपा करते हैं उस जीवात्मा पर उसके द्वारा किये गये कर्म व कर्मफल का कोई असर नहीं होता  उसके कर्म अकर्म में बदल जाते हैं। भगवत गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि -

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति।।

भावार्थ यह है कि भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन जो मनुष्य पूर्णरूप से मेरी शरण हो जाता है उस पर मैं कृपा करता हूँ और वो मेरी कृपा के फलस्वरूप तत्काल उसी क्षण मेरा भक्त ( धर्मात्मा) हो जाता है और तत्काल निरन्तर रहने वाली सुख शान्ति को प्राप्त हो जाता है। हे कुन्तीनन्दन अर्जुन निडर होकर  यह घोषणा कर दो कि मेरे शरणागत भक्त का पतन नहीं हो सकता क्योंकि वो पूर्णरूप से मेरी शरण में है। 

झगड़ा पति पत्नि का

पति ने पत्नी को किसी बात पर तीन थप्पड़ जड़ दिए, पत्नी ने इसके जवाब में अपना सैंडिल पति की तरफ़ फेंका, सैंडिल का एक सिरा पति के सिर को छूता हुआ निकल गया।

मामला रफा-दफा हो भी जाता, लेकिन पति ने इसे अपनी तौहिन समझा, रिश्तेदारों ने मामला और पेचीदा बना दिया, न सिर्फ़ पेचीदा बल्कि संगीन, सब रिश्तेदारों ने इसे खानदान की नाक कटना कहा, यह भी कहा कि पति को सैडिल मारने वाली औरत न वफादार होती है न पतिव्रता।

इसे घर में रखना, अपने शरीर में मियादी बुखार पालते रहने जैसा है। कुछ रिश्तेदारों ने यह भी पश्चाताप जाहिर किया कि ऐसी औरतों का भ्रूण ही समाप्त कर देना चाहिए।

बुरी बातें चक्रवृृद्धि ब्याज की तरह बढ़ती है, सो दोनों तरफ खूब आरोप उछाले गए। ऐसा लगता था जैसे दोनों पक्षों के लोग आरोपों का वॉलीबॉल खेल रहे हैं। लड़के ने लड़की के बारे में और लड़की ने लड़के के बारे में कई असुविधाजनक बातें कही।


मुकदमा दर्ज कराया गया। पति ने पत्नी की चरित्रहीनता का तो पत्नी ने दहेज उत्पीड़न का मामला दर्ज कराया। छह साल तक शादीशुदा जीवन बीताने और एक बच्ची के माता-पिता होने के बाद आज दोनों में तलाक हो गया।

पति-पत्नी के हाथ में तलाक के काग़ज़ों की प्रति थी। दोनों चुप थे, दोनों शांत, दोनों निर्विकार।
मुकदमा दो साल तक चला था। दो साल से पत्नी अलग रह रही थी और पति अलग, मुकदमे की सुनवाई पर दोनों को आना होता। दोनों एक दूसरे को देखते जैसे चकमक पत्थर आपस में रगड़ खा गए हों।

दोनों गुस्से में होते। दोनों में बदले की भावना का आवेश होता। दोनों के साथ रिश्तेदार होते जिनकी हमदर्दियों में ज़रा-ज़रा विस्फोटक पदार्थ भी छुपा होता।

लेकिन कुछ महीने पहले जब पति-पत्नी कोर्ट में दाखिल होते तो एक-दूसरे को देख कर मुँह फेर लेते। जैसे जानबूझ कर एक-दूसरे की उपेक्षा कर रहे हों, वकील औऱ रिश्तेदार दोनों के साथ होते।

दोनों को अच्छा-खासा सबक सिखाया जाता कि उन्हें क्या कहना है। दोनों वही कहते। कई बार दोनों के वक्तव्य बदलने लगते। वो फिर सँभल जाते। अंत में वही हुआ जो सब चाहते थे यानी तलाक ................

पहले रिश्तेदारों की फौज साथ होती थी, आज थोड़े से रिश्तेदार साथ थे। दोनों तरफ के रिश्तेदार खुश थे, वकील खुश थे, माता-पिता भी खुश थे।

तलाकशुदा पत्नी चुप थी और पति खामोश था।
यह महज़ इत्तेफाक ही था कि दोनों पक्षों के रिश्तेदार एक ही टी-स्टॉल पर बैठे , कोल्ड ड्रिंक्स लिया। यह भी महज़ इत्तेफाक ही था कि तलाकशुदा पति-पत्नी एक ही मेज़ के आमने-सामने जा बैठे।

लकड़ी की बेंच और वो दोनों .......
''कांग्रेच्यूलेशन .... आप जो चाहते थे वही हुआ ....'' स्त्री ने कहा।
''तुम्हें भी बधाई ..... तुमने भी तो तलाक दे कर जीत हासिल की ....'' पुरुष बोला।

''तलाक क्या जीत का प्रतीक होता है????'' स्त्री ने पूछा।
''तुम बताओ?''
पुरुष के पूछने पर स्त्री ने जवाब नहीं दिया, वो चुपचाप बैठी रही, फिर बोली, ''तुमने मुझे चरित्रहीन कहा था....
अच्छा हुआ.... अब तुम्हारा चरित्रहीन स्त्री से पीछा छूटा।''
''वो मेरी गलती थी, मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था'' पुरुष बोला।
''मैंने बहुत मानसिक तनाव झेला है'', स्त्री की आवाज़ सपाट थी न दुःख, न गुस्सा।

''जानता हूँ पुरुष इसी हथियार से स्त्री पर वार करता है, जो स्त्री के मन और आत्मा को लहू-लुहान कर देता है... तुम बहुत उज्ज्वल हो। मुझे तुम्हारे बारे में ऐसी गंदी बात नहीं करनी चाहिए थी। मुझे बेहद अफ़सोस है, '' पुरुष ने कहा।

स्त्री चुप रही, उसने एक बार पुरुष को देखा।
कुछ पल चुप रहने के बाद पुरुष ने गहरी साँस ली और कहा, ''तुमने भी तो मुझे दहेज का लोभी कहा था।''
''गलत कहा था''.... पुरुष की ओऱ देखती हुई स्त्री बोली।
कुछ देर चुप रही फिर बोली, ''मैं कोई और आरोप लगाती लेकिन मैं नहीं...''

प्लास्टिक के कप में चाय आ गई।
स्त्री ने चाय उठाई, चाय ज़रा-सी छलकी। गर्म चाय स्त्री के हाथ पर गिरी।
स्सी... की आवाज़ निकली।
पुरुष के गले में उसी क्षण 'ओह' की आवाज़ निकली। स्त्री ने पुरुष को देखा। पुरुष स्त्री को देखे जा रहा था।
''तुम्हारा कमर दर्द कैसा है?''
''ऐसा ही है कभी वोवरॉन तो कभी काम्बीफ्लेम,'' स्त्री ने बात खत्म करनी चाही।

''तुम एक्सरसाइज भी तो नहीं करती।'' पुरुष ने कहा तो स्त्री फीकी हँसी हँस दी।
''तुम्हारे अस्थमा की क्या कंडीशन है... फिर अटैक तो नहीं पड़े????'' स्त्री ने पूछा।
''अस्थमा।डॉक्टर सूरी ने स्ट्रेन... मेंटल स्ट्रेस कम करने को कहा है, '' पुरुष ने जानकारी दी।

स्त्री ने पुरुष को देखा, देखती रही एकटक। जैसे पुरुष के चेहरे पर छपे तनाव को पढ़ रही हो।
''इनहेलर तो लेते रहते हो न?'' स्त्री ने पुरुष के चेहरे से नज़रें हटाईं और पूछा।
''हाँ, लेता रहता हूँ। आज लाना याद नहीं रहा, '' पुरुष ने कहा।

''तभी आज तुम्हारी साँस उखड़ी-उखड़ी-सी है, '' स्त्री ने हमदर्द लहजे में कहा।
''हाँ, कुछ इस वजह से और कुछ...'' पुरुष कहते-कहते रुक गया।
''कुछ... कुछ तनाव के कारण,'' स्त्री ने बात पूरी की।

पुरुष कुछ सोचता रहा, फिर बोला, ''तुम्हें चार लाख रुपए देने हैं और छह हज़ार रुपए महीना भी।''
''हाँ... फिर?'' स्त्री ने पूछा।
''वसुंधरा में फ्लैट है... तुम्हें तो पता है। मैं उसे तुम्हारे नाम कर देता हूँ। चार लाख रुपए फिलहाल मेरे पास नहीं है।'' पुरुष ने अपने मन की बात कही।

''वसुंधरा वाले फ्लैट की कीमत तो बीस लाख रुपए होगी??? मुझे सिर्फ चार लाख रुपए चाहिए....'' स्त्री ने स्पष्ट किया।
''बिटिया बड़ी होगी... सौ खर्च होते हैं....'' पुरुष ने कहा।
''वो तो तुम छह हज़ार रुपए महीना मुझे देते रहोगे,'' स्त्री बोली।
''हाँ, ज़रूर दूँगा।''
''चार लाख अगर तुम्हारे पास नहीं है तो मुझे मत देना,'' स्त्री ने कहा।
उसके स्वर में पुराने संबंधों की गर्द थी।

पुरुष उसका चेहरा देखता रहा....
कितनी सह्रदय और कितनी सुंदर लग रही थी सामने बैठी स्त्री जो कभी उसकी पत्नी हुआ करती थी।
स्त्री पुरुष को देख रही थी और सोच रही थी, ''कितना सरल स्वभाव का है यह पुरुष, जो कभी उसका पति हुआ करता था। कितना प्यार करता था उससे...

एक बार हरिद्वार में जब वह गंगा में स्नान कर रही थी तो उसके हाथ से जंजीर छूट गई। फिर पागलों की तरह वह बचाने चला आया था उसे। खुद तैरना नहीं आता था लाट साहब को और मुझे बचाने की कोशिशें करता रहा था... कितना अच्छा है... मैं ही खोट निकालती रही...''

पुरुष एकटक स्त्री को देख रहा था और सोच रहा था, ''कितना ध्यान रखती थी, स्टीम के लिए पानी उबाल कर जग में डाल देती। उसके लिए हमेशा इनहेलर खरीद कर लाती, सेरेटाइड आक्यूहेलर बहुत महँगा था। हर महीने कंजूसी करती, पैसे बचाती, और आक्यूहेलर खरीद लाती। दूसरों की बीमारी की कौन परवाह करता है? ये करती थी परवाह! कभी जाहिर भी नहीं होने देती थी। कितनी संवेदना थी इसमें। मैं अपनी मर्दानगी के नशे में रहा। काश, जो मैं इसके जज़्बे को समझ पाता।''

दोनों चुप थे, बेहद चुप।
दुनिया भर की आवाज़ों से मुक्त हो कर, खामोश।
दोनों भीगी आँखों से एक दूसरे को देखते रहे....

''मुझे एक बात कहनी है, '' उसकी आवाज़ में झिझक थी।
''कहो, '' स्त्री ने सजल आँखों से उसे देखा।
''डरता हूँ,'' पुरुष ने कहा।
''डरो मत। हो सकता है तुम्हारी बात मेरे मन की बात हो,'' स्त्री ने कहा।
''तुम बहुत याद आती रही,'' पुरुष बोला।
''तुम भी,'' स्त्री ने कहा।
''मैं तुम्हें अब भी प्रेम करता हूँ।''
''मैं भी.'' स्त्री ने कहा।

दोनों की आँखें कुछ ज़्यादा ही सजल हो गई थीं।
दोनों की आवाज़ जज़्बाती और चेहरे मासूम।
''क्या हम दोनों जीवन को नया मोड़ नहीं दे सकते?'' पुरुष ने पूछा।
''कौन-सा मोड़?''
''हम फिर से साथ-साथ रहने लगें... एक साथ... पति-पत्नी बन कर... बहुत अच्छे दोस्त बन कर।''

''ये पेपर?'' स्त्री ने पूछा।
''फाड़ देते हैं।'' पुरुष ने कहा औऱ अपने हाथ से तलाक के काग़ज़ात फाड़ दिए। फिर स्त्री ने भी वही किया। दोनों उठ खड़े हुए। एक दूसरे के हाथ में हाथ डाल कर मुस्कराए। दोनों पक्षों के रिश्तेदार हैरान-परेशान थे। दोनों पति-पत्नी हाथ में हाथ डाले घर की तरफ चले गए। घर जो सिर्फ और सिर्फ पति-पत्नी का था।।

पति पत्नी में प्यार और तकरार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं जरा सी बात पर कोई ऐसा फैसला न लें कि आपको जिंदगी भर अफसोस हो।।

परमात्मा भाग-9

ईश्वर ही अपनी कृपा से जीव को त्रिगुणात्मक माया प्रकृति से बन्धन मुक्त कर सकते हैं अन्य किसी दूसरी शक्ति में सामर्थ्य नहीं है और न  ही जीव अपने बल पर साधना करके इस माया से बन्धनमुक्त हो सकता है इसके अतिरिक्त किसी सन्त महात्मा में भी ऐसी सामर्थ्य नहीं है जो इस असम्भव कार्य को सम्भव कर सके। फिर ऐसा क्यों कहते हैं कि ईश्वर प्राप्ति में गुरु का होना अनिवार्य है, वो इस लिये कहते हैं कि वास्तविक मायातीत महापुरुष  इस प्रक्रिया से गुजरे हुए होते हैं उन्हें इस मार्ग का पूर्ण ज्ञान होता है और उसी तरह का ज्ञान वे हमें समझाते हैं। अब शिष्य के ऊपर निर्भर है कि वो उस मार्ग कितना चलता है यदि साधक गुरु के बताये मार्ग पर नहीं चलेगा तो ऐसी दशा में स्वयं जगदगुरु ब्रह्मा जी भी उस शिष्य का कुछ नहीं करसकते। केवल ईश्वर की कृपा से ही ईश्वर को जान सकते हैं, प्राप्त करसकते हैं, इस सम्बन्ध में  रामचरित्र मानस में तुलसीदास जी ने लिखा है -

राम कृपा बिनु सुनु खगराई।
जानि न जाय राम प्रभुताई।।

अब तो केवल परमात्मा की कृपा कैसे प्राप्त हो इस सम्बन्ध में ही बिचार करना है। ईश्वर कृपा प्राप्ति हेतु जीवो ने अलग अलग प्रकार के तरीके अपनाये परन्तु कामयाबी नहीं  मिली क्योंकि वे सभी तरीके सटीक नहीं थे। हमने सबकुछ किया परन्तु भगवान से प्यार नहीं किया, प्रेम से ही भगवान भक्त के वश में होजाते हैं । रामचरित्र मानस में लिखा है कि -

रामहु केवल प्रेम प्यारा।
जानलेहु जो जाननि हारा।।

 प्रेम भक्ति के सामने ब्रह्मज्ञान बहुत पीछे है।रामचरित्र मानस में एक प्रसंग आता है जब विश्वामित्र जी के साथ राम और लक्ष्मण धनुषयज्ञ देखने राजा जनक के यहां जाते हैं और जब राजा जनक जो बहुत बड़े ब्रह्मज्ञानी थे उन्हें विदेह कहा जाता है, जैसे ही जनक ने राम लक्ष्मण को देखा तत्काल ब्रह्मज्ञान गायब हो गया और प्रेमानन्द उत्पन्न होगया और तत्काल जनक विश्वामित्र जी से कहने लगे -

इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा।
बरबस ब्रह्म सुखहि मन त्यागा।।

एक पशु होता है जिसे हम गधा कहते हैं उस पर भी परमात्मा यदि अपनी कृपा करदे तो वह गधा भी परमात्मा को जान सकता है, प्राप्त कर सकता है। अब ईश्वर की कृपा कैसे प्राप्त हो इस पर कुछ विचार करते हैं। परमात्मा की कृपा प्राप्ति हेतु परमात्मा की एक शर्त है जो हमे पूरी करनी होगी और वह शर्त है परमात्मा की शरणागति। यदि जीवात्मा किसी तरह से अपने मन और बुध्दि का समर्पण परमात्मा को करदे तब लक्ष्य पूरा होने में देर नहीं है। भगवत गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं  कि -

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुध्दिं निवेशय।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्धवं न संशयः।।

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि है अर्जुन अपने मन और बुध्दि  को  मुझमें ही प्रविष्ट करदे, इसमें कोई सन्देह नहीं है कि उसके बाद तू मुझमें ही निवास करेगा। फिर भगवान कहते हैं कि -

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मदव्यपाश्रयः।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्।।

भगवान कहते हैं कि मेरे शरणागत होने वाला मेरा भक्त सदा सब कर्म करता हुआ भी मेरी  कृपा से शाश्वत अविनाशी पद को अर्थात मेरे परमधाम को प्राप्त हो जाता है। 

Monday, April 8, 2019

टेम्प्रेचर कन्वर्शन तालिका


क्रोध पर नियंत्रण

द्रोपदी चीरहरण होने के बाद द्रोणाचार्य भीष्म के कमरे में आकर अपना दुःख प्रकट करने लगे की-

"मैं बहुत शर्मसार और दुखी हूँ की ये सब मेरी आँखों को देखना पड़ा, इस से बेहतर मैं मर जाता" वगैरह वगैरह,
जिसपर भीष्म का जवाब था की "मैं तो ये सोच रहा हूँ की जब अर्जुन हमला करेगा तो उस से कैसे निबटेंगे",
द्रोणाचार्य का सारा दुःख आश्चर्य में बदल गया, उन्होंने भीष्म से पूछा "तो क्या अर्जुन आज ही हमला कर देगा"
भीष्म का जवाब था "अगर कृष्ण उसके साथ ना होते तो वो बेशक आज ही हमला कर देता और हमारी सेना उसे यहीं महल में मार गिराती, लेकिन क्यूंकि कृष्ण उसके साथ है इसलिए वो पूरी तैयारी करके हमला करेगा, लेकिन करेगा जरूर".

ये वाकया महाभारत में कृष्ण के अपने और दूसरों के गुस्सों को काबू कर पाने की सबसे बड़ी गवाही है,
कृष्ण एक बहुत ही गुस्सैल लड़ाका थे, सभी को डर रहता था की इनसे पन्गा नहीं लेना चाहिए,  कंस से लेकर शिशुपाल और जरासंध तक कृष्ण ने ना जाने कितने बड़े बड़े राजा ठिकाने लगा दिए थे।


कृष्ण के गुस्से को दिशान्तरण करने के तीन बड़े उदाहरण है:

1. पांडव गुस्से में होते हैं, द्रौपदी सबसे ज्यादा गुस्से में होती है, द्रौपदी कसम ले लेती है की वो अपने बाल अब दुशाशन के खून से ही धोएगी, वो बार बार युद्ध के लिए हुंकार भर रही होती है, सारे पाण्डंव चुपचाप सुन रहे होते हैं,

ऐसे में कृष्ण द्रौपदी को धमकाते हुए कहते है की तुम्हारे बालों के लिए वो हस्तिनापुर की लाखों महिलाओं का सिन्दूर नहीं उजड़ने देंगे, जब तक शांति की संभावना होगी तब तक शान्ति ही स्थापित करने की कोशिश की जायेगी।

द्रौपदी ये सुनकर चुप रह जाती है।

कृष्ण को पता था की इस युद्ध और दुशाशन के खून की कीमत द्रौपदी अपने पाँचों बेटों की जान से चुकाने वाली है।

2. दूसरा मौका था, जब कृष्ण पांच गाँव मांगने कौरवों के पास जाते हैं। दुर्योधन वहीँ उन्हें ग्वाला और पता नहीं क्या क्या कहने लग जाता है। कृष्ण के साथ आये हुए थे उनके भाई सात्यकि, जो महाभारत के सबसे बड़े योद्धाओं में माने जाते हैं, कृष्ण के कुछ कहने से पहले ही सात्यकि अपनी तलवार निकाल के भरी सभा के बीच दुर्योधन की छाती पर तान देते है। पूरी सभा सन्न रह जाती है कि ये क्या हो गया, युवराज की छाती की और सभा के बीचोबीच तलवार तनी हुई है। कृष्ण तभी सात्यकि का हाथ पकड़ लेते हैं, और युद्ध की चेतावनी दे डालते हैं। सात्यकि का हस्तिनापुर के महल में खड़े होकर दुर्योधन के विरुद्ध तलवार निकालना दुर्योधन को उसकी औकात बताना था, और उसे वहीँ पर नहीं मारना उसको अपनी ताकत और साहस दोनों बताना था।
दुर्योधन की सेना चाहती तो तलवार तानने के लिए सात्यकि को वहीँ मार सकती थी, लेकिन वो लोग कुछ नहीं करते।

3. तीसरा मौका था जब भीष्म फैसला कर लेते है की वो युधिष्ठिर को गिरफ्तार करके युद्ध ख़त्म कर देंगे,
भीष्म को रोक सके ऐसा कोई योद्धा नहीं था पांडवों की सेना में, भीष्म युद्धिष्ठिर को ललकारते हुए एलान कर देते है की या तो युद्धिष्ठिर आ के उन से लडे वरना वो कुछ ही दिनों में पांडवों की पूरी सेना को अकेला मार गिराएंगे, युद्धिष्ठिर को वहाँ भेज देते तो युद्ध उसी दिन ख़त्म हो जाना था, इसलिए कृष्ण युद्ध में हथियार ना उठाने की अपनी कसम को तोड़ देते है, और सुदर्शन चक्र लेकर भीष्म के सामने आ जाते है की भीष्म ने अगर एक भी पैदल सैनिक पर हथियार उठाया तो कृष्ण उसकी गर्दन उतार देंगे। भीष्म ये देखकर हथियार नीचे डालकर हाथ जोड़कर सामने खड़े हो जाते है, लेकिन कृष्ण उन्हें नहीं मारते, क्यूंकि उन्हें अपनी ताकत का डर बनाये रखना था, नाकि युद्ध में उतरना था।

ये तीनो ही मौके कृष्ण के गुस्से और गुस्से को अपनी फायदे के तौर पर इस्तेमाल करने के बेहतरीन उदाहरण हैं। कृष्ण दुश्मन को धमकाते हैं, लेकिन उसे मारते नहीं है, वो उसे मारते तभी है जब कोई और चारा ही ना बचा हो, क्यूंकि कृष्ण को परिणाम की समझ थी। उन्हें मालूम था की एक एक पैदल सैनिक का उसके घर पर कोई इंतज़ार कर रहा है। वो ना तो द्रौपदी के गुस्से को सैनिकों की जान लेने लायक समझते है, ना ही भीष्म और सात्यकि के शौर्य को। इंसान को क्रोध करना तो चाहिए पर उस पर कृष्ण जैसा नियंत्रण भी बनाये रखना चाहिए क्योंकि क्रोध आपके लिए विजय पाने के लिये विकल्प तलाशने में मदद करता है पर नियंत्रित न होने पर हर रास्ते को बन्द भी कर देता हैं।

जय श्री कृष्ण
जय श्री राधे

परमात्मा भाग-8

भक्ति मार्ग-

साधक चाहे कर्म मार्ग का हो, ज्ञान मार्ग का हो, चाहे भक्ति मार्ग का हो, चाहे किसी भी मार्ग का साधक हो उस साधक को त्रिगुणात्मक माया प्रकृति को जीतकर ही परमात्मा तक पहुँच सकता है यह वचन अटल सत्य है । शास्त्र कहते हैं कि -

" भयं द्वितीयाभिनिवेशतः स्यादीशादपेतस्य विपर्ययोऽस्मृतिः "

कृष्ण बहिर्मुख जीव कहँ, माया करति आधीन।
ताते भूल्यो आप कहँ, बन्यो विषय - रस - मीन।।

तात्पर्य यह है कि जीव अनादिकाल से अपने स्वामी परमात्मा से बिमुख है अतएव माया ने अवसर पाकर जीवात्मा को पूर्णरूप से दबोच लिया और पूर्णतः जीव को अपने वश में कर लिया। परिणामस्वरूप जीव स्वयं को देह (शरीर) मानने लगा तथा तत्काल संसारी विषयो में आसक्त हो गया अब चाहे किसी भी मार्ग का साधक हो उसे त्रिगुणात्मक माया प्रकृति को जीतकर ही परमात्मा को प्राप्त करना होगा क्योंकि ये त्रिगुणात्मक माया प्रकृति ही ईश्वर प्राप्ति में सबसे बड़ी बाधा है। माया प्रकृति बहुत बड़ी शक्ति है, बड़ी बड़ी हस्तियां ब्रह्मा शंकर भी  इस माया से डरते हैं । रामायण कहती है कि -

सिव चतुरानन जेहि डेराही।
अपर जीव केहि लेखे माही।।

केवल भक्ति से ही इस प्रचण्ड माया को जीता जा सकता है अन्य किसी साधन से इस माया को नहीं जीत सकते हैं।

त्रिगुणात्मक माया प्रकृति परमात्मा की शक्ति है और परमात्मा की शक्ति पर परमात्मा  ही विजय पा सकते हैं परमात्मा के  अतिरिक्त किसी में भी इतनी हिम्मत नहीं है जो इस त्रिगुणात्मक माया प्रकृति पर विजय प्राप्त कर सके। परन्तु इस विषय पर भी विचार करना आवश्यक है कि कितने ही भक्तो ने इस त्रिगुणात्मक माया प्रकृति पर विजय प्राप्त करके ईश्वर को प्राप्त किया है ईश्वर को जाना है फिर उन्होने कैसे इस प्रचण्ड माया को जीत लिया जिस माया से ब्रह्मा, शंकर भी भयभीत होते हैं। यह माया प्रकृति परमात्मा की शक्ति होने से परमात्मा की ही बराबर शक्तिशाली है तथा परमात्मा की आज्ञा से उनकी प्रेरणा से ही यह माया प्रकृति अपना कार्य करती है। इसका सीधे - सीधे मतलब यह निकला यदि किसी भी कारण से हमारी मित्रता ईश्वर से हो जाये तो हम बड़ी आसानी से इस माया प्रकृति पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। तुलसीदास जी ने रामचरित्र मानस में लिखा है कि -

जो माया सब जगहि नचावा।
जासु चरित्र लखि काहु न पावा।।
सोई प्रभु भ्रू बिलास खगराजा।
नाच नटी इव सहित समाजा।।

जो माया सारे संसार को नचाती है जिसका चरित्र कोई जान ही नहीं पाया वही माया अपने परिवार सहित परमात्मा के एक इशारे पर नटी की तरह नाचती है और परमात्मा की आज्ञा की प्रतीक्षा करती है। अब हम इस उलझन में पड़ गये कि न तो हम भगवान को जीत सकते हैं और न माया को ही जीत सकते हैं  फिर क्या करे ?

त्रिगुणात्मक माया प्रकृति जीव के ईश्वर प्राप्ति मार्ग में महान बाधक है क्योंकि यह त्रिगुणात्मक माया प्रकृति परमात्मा और जीव के बीच स्थित है जिस कारण से मायाधीन जीव पर त्रिगुणात्मक माया प्रकृति की छाया पड़ रही है और करोड़ो प्रयत्न करने पर भी जीवात्मा को परमात्मा का दर्शन नहीं हो रहा। अब हमें ऐसा प्रयास  करना चाहिए जिससे जीव माया रूपी भवसागर को पार करके परमात्मा तक पहुँच जाए जो कि असम्भव सा लगता है। यह असम्भव  सम्भव कैसे हो इस पर कुछ विचार करते हैं। वेदशास्त्र ,पुराण , गीता, रामायण तथा महापुरुष कहते हैं कि यह त्रिगुणात्मक माया प्रकृति परमात्मा की शक्ति है और यह परमात्मा की ही आज्ञा मानती है जीव का माया पर वश नहीं चलता। स्वयं परमात्मा ही अपनी कृपा से जीवात्मा को पूर्णरूप से इस त्रिगुणात्मक माया प्रकृति से बन्धनमुक्त कर सकते हैं यही अटल सत्य है। भगवत गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि -

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।

भगवान कहते हैं कि मेरी यह माया दैवी गुणमयी माया है और बड़ी दुरत्यय है अर्थात इससे पार पाना अत्यन्त कठिन है। जो जीवात्मा केवल मेरे ही शरण होते हैं वे जीवात्मा ही इस माया को तर जाते हैं अर्थात जो जीवात्मा पूर्णरूप से मेरी ही शरण में आ जाते हैं उस मेरे ही शरणागत जीवात्मा को स्वयं मैं इस त्रिगुणात्मक माया प्रकृति से बन्धनमुक्त करके अपने लोक की प्राप्ति करा देता हूँ। अतः निष्कर्ष यह निकला कि परमात्मा की कृपा से ही जीवात्मा माया को पार करके परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। 

अभिमान

एक पंडित जी थे। उन्होंने एक नदी के किनारे अपना आश्रम बनाया हुआ था। पंडित जी बहुत विद्वान थे। उनके आश्रम में दूर-दूर से लोग ज्ञान प्राप्त करने आते थे।

नदी के दूसरे किनारे पर लक्ष्मी नाम की एक ग्वालिन अपने बूढ़े पिता के साथ रहती थी। लक्ष्मी सारा दिन अपनी गायों को देखभाल करती थी। सुबह जल्दी उठकर अपनी गायों को नहला कर दूध दुहती, फिर अपने पिताजी के लिए खाना बनाती, तत्पश्चात् तैयार होकर दूध बेचने के लिए निकल जाया करती थी।

पंडित जी के आश्रम में भी दूध लक्ष्मी के यहाँ से ही आता था। एक बार पंडित जी को किसी काम से शहर जाना था। उन्होंने लक्ष्मी से कहा कि उन्हें शहर जाना है, इसलिए अगले दिन दूध उन्हें जल्दी चाहिए। लक्ष्मी अगले दिन जल्दी आने का वादा करके चली गयी।

अगले दिन लक्ष्मी ने सुबह जल्दी उठकर अपना सारा काम समाप्त किया और जल्दी से दूध उठाकर आश्रम की तरफ निकल पड़ी। नदी किनारे उसने आकर देखा कि कोई मल्लाह अभी तक आया नहीं था। लक्ष्मी बगैर नाव के नदी कैसे पार करती ? फिर क्या था, लक्ष्मी को आश्रम तक पहुँचने में देर हो गयी। आश्रम में पंडित जी जाने को तैयार खड़े थे। उन्हें सिर्फ लक्ष्मी का इन्तजार था। लक्ष्मी को देखते ही उन्होंने लक्ष्मी को डाँटा और देरी से आने का कारण पूछा।

लक्ष्मी ने भी बड़ी मासूमियत से पंडित जी से कह दिया कि- “नदी पर कोई मल्लाह नहीं था, मै नदी कैसे पार करती ? इसलिए देर हो गयी।“

पंडित जी गुस्से में तो थे ही, उन्हें लगा कि लक्ष्मी बहाने बना रही है। उन्होंने भी गुस्से में लक्ष्मी से कहा, ‘‘क्यों बहाने बनाती है। लोग तो जीवन सागर को भगवान का नाम लेकर पार कर जाते हैं, तुम एक छोटी सी नदी पार नहीं कर सकती?”

पंडित जी की बातों का लक्ष्मी पर बहुत गहरा असर हुआ। दूसरे दिन भी जब लक्ष्मी दूध लेकर आश्रम जाने निकली तो नदी के किनारे मल्लाह नहीं था। लक्ष्मी ने मल्लाह का इंतजार नहीं किया। उसने भगवान को याद किया और पानी की सतह पर चलकर आसानी से नदी पार कर ली। इतनी जल्दी लक्ष्मी को आश्रम में देख कर पंडित जी हैरान रह गये, उन्हें पता था कि कोई मल्लाह इतनी जल्दी नहीं आता है।

उन्होंने लक्ष्मी से पूछा- “ तुमने आज नदी कैसे पार की ? इतनी सुबह तो कोई मल्लाह नही मिलता।”

लक्ष्मी ने बड़ी सरलता से कहा- ‘‘पंडित जी आपके बताये हुए तरीके से नदी पार कर ली। मैंने भगवान् का नाम लिया और पानी पर चलकर नदी पार कर ली।’’

पंडित जी को लक्ष्मी की बातों पर विश्वास नहीं हुआ। उसने लक्ष्मी से फिर पानी पर चलने के लिए कहा। लक्ष्मी नदी के किनारे गयी और उसने भगवान का नाम जपते-जपते बड़ी आसानी से नदी पार कर ली।

पंडित जी हैरान रह गये। उन्होंने भी लक्ष्मी की तरह नदी पार करनी चाही। पर नदी में उतरते वक्त उनका ध्यान अपनी धोती को गीली होने से बचाने में लगा था। वह पानी पर नहीं चल पाये और धड़ाम से पानी में गिर गये।

 पंडित जी को गिरते देख लक्ष्मी ने हँसते हुए कहा- ‘‘आपने तो भगवान का नाम लिया ही नहीं, आपका सारा ध्यान अपनी नयी धोती को बचाने में ही लगा हुआ था।’’

पंडित जी को अपनी गलती का अहसास हो गया। उन्हें अपने ज्ञान पर बड़ा अभिमान था। पर अब उन्होंने जान लिया था कि भगवान को पाने के लिए किसी भी ज्ञान की जरूरत नहीं होती। उसे तो पाने के लिए सिर्फ सच्चे मन से याद करने की जरूरत है। 

परमात्मा भाग-7

भक्ति योग


अब तक कर्म मार्ग और ज्ञान मार्ग पर बहुत ही संक्षेप में चर्चा की गई अब आगे भक्ति योग पर संक्षेप में चर्चा करते हैं।

वैसे तो ज्ञान और भक्ति  दोनों ही मार्ग से जीव कल्याण होता है यह बिल्कुल सच्ची बात है,   फिर भी ज्ञान की अपेक्षा भक्ति की अधिक महिमा है। ज्ञान से तो अखण्ड रस की प्राप्ति होती है परन्तु भक्ति से  अनन्त रस की प्राप्ति होती है जो कि प्रतिक्षण वर्धमान है। जैसे  उदाहरण स्वरूप संसार में किसी वस्तु का ज्ञान हो जाता है तो उस वस्तु के प्रति जो अनजानापन था, जो अज्ञानता थी वह मिट जाता  है । अज्ञान मिट जाने से सुख का आभास होता है सभी प्रकार के भय समाप्त हो जाते हैं परन्तु भक्ति तो ज्ञान से कहीं अधिक विलक्षण है। उदाहरणार्थ जैसे अज्ञानतावश एक अज्ञानी मनुष्य को नोटो की गड्डी मिलती है और वो ये नहीं समझ पा रहा था कि ये क्या है उसने कभी रुपए देखे ही नहीं थे, अब वो परेशान कि ये क्या है तब किसी ज्ञानी मनुष्य ने उसे समझाया कि ये रूपयो अथवा नोटो की गड्डी है अब उस अज्ञानी का जो उस गड्डी के प्रति जो अज्ञान, अनजानापन था वह मिट गया उसने जान लिया कि ये रुपये हैं परन्तु उसे ये रुपये है यह ज्ञान हो जाने पर भी उन रुपयो को प्राप्त करने का लोभ पैदा नहीं हुआ यदि उसे ये पता चल जाता कि इन रुपयो के बदले में संसार की बहुत सारी अच्छी - अच्छी वस्तुओं की प्राप्ति होती है तो तत्काल उसे उन रुपयो के प्रति लोभ पैदा हो जाता और ये लालच प्रतिदिन बढ़ता ही जाता। वस्तु के आकर्षण में जो रस है वह रस वस्तु के ज्ञान में नहीं है। ज्ञान का रस तो स्वयं जीव ही लेता है परन्तु भक्ति का रस प्रेम का रस परमात्मा स्वयं लेते हैं, भगवान ज्ञान के नहीं प्रेम के आधीन हो जाते हैं, इस लिए भक्ति ज्ञान से कहीं अधिक विलक्षण है।


भक्ति मार्ग 


भक्ति मार्ग पर संक्षेप में चर्चा की गई, भक्ति मार्ग ज्ञान मार्ग से सुलभ है ।भगवत प्राप्ति जितनी भक्ति से सुलभ है उतनी ज्ञान से, योग से, तप से नहीं है । भक्ति मार्ग पर चलने से भक्त का भगवान योगक्षेम वहन करते हैं।

भगवान अर्जुन से कहते हैं -

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्ताननां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।

भगवान कहते हैं कि जो मेरे अनन्य भक्त मेरा ही चिन्तन करते हुए भलिभाँति मेरी उपासना करते हैं , ऐसे जो निरन्तर मुझमे लगे हुए मेरे भक्त हैं, मैं उनका योगक्षेम वहन करता हूँ अर्थात मैं हर समय अपने भक्त के साथ रहकर उसकी रक्षा करता हूँ। अप्राप्त की प्राप्ति करता हूँ और जो मेरे भक्त को प्राप्त है उसकी रक्षा करता हूँ। भगवान ने ऐसा केवल अपने भक्त के लिए ही कहा है   ज्ञानी तथा तपस्वी एवं योगी के लिए नहीं कहा ।

भक्ति मार्ग ज्ञान मार्ग से इस लिए सुलभ है क्योंकि ज्ञान मार्ग में बड़े कठिन नियम है जैसे -

1- विवेक,
2- वैराग्य,
3- शमादि षटसम्पत्ति - शम, दम, श्रद्धा, उपरति, तितिक्षा, और समाधान
4- मुमुक्षता,
5- श्रवण,
6- मनन,
7- निदिध्यासन, और
8- तत्वपदार्थसंशोधन 

ब्रह्मज्ञान की  दीक्षा लेने से पहले इन आठो नियमो का पालन करना अनिवार्य है। यही ब्रह्मज्ञान की प्रचलित प्रक्रिया है ,इस प्रक्रिया को पूरा किये बिना ब्रह्मज्ञान के मार्ग में दाखिला नहीं हो सकता । कुछ धन के लोभी बाबा अपने शिष्यो को ये बात नहीं बताते उनका कहना है कि मन कहीं भी जाय तुम तो सिर्फ आँखे बन्द करके बैठे रहो और भोले भाले शिष्य उनकी बातों में आकर बर्बाद हो जाते हैं। यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि प्राकृत मन द्वारा की गई साधना भी प्राकृत ही है। रामचरित्र मानस में तुलसी दास जी लिखते हैं कि -

गो गोचर जहँ लगि मन जाई।
सो सब माया जानेहु भाई।।

कुछ महात्मा ऐसा भी कहते हैं कि जैसा कहा है वैसा ही करो हम गारन्टी लेते हैं कि आपको हम परमधाम पहुँचा देंगे । यह बात पूरी तरह मन में बसा लो कि चाहें ज्ञान मार्ग हो भक्ति मार्ग हो या कर्म मार्ग हो ठीक ठीक तरह से साधना तो करनी ही पड़ेगी । बिना साधना किए कोई महात्मा या स्वयं भगवान भी हमारा उद्धार नहीं कर सकते।

 

Sunday, April 7, 2019

मजाक

पिता और पुत्र साथ-साथ टहलने निकले,वे दूर खेतों की तरफ निकल आये, तभी पुत्र ने देखा कि रास्ते में, पुराने हो चुके एक जोड़ी जूते उतरे पड़े हैं, जो ...संभवतः पास के खेत में काम कर रहे गरीब मजदूर के थे.

पुत्र को मजाक सूझा. उसने पिता से कहा क्यों न आज की शाम को थोड़ी शरारत से यादगार बनायें, आखिर ... मस्ती ही तो आनन्द का सही स्रोत है. पिता ने असमंजस से बेटे की ओर देखा.

पुत्र बोला हम ये जूते कहीं छुपा कर झाड़ियों के पीछे छुप जाएं. जब वो मजदूर इन्हें यहाँ नहीं पाकर घबराएगा तो बड़ा मजा आएगा. उसकी तलब देखने लायक होगी, और इसका आनन्द मैं जीवन भर याद रखूंगा.

पिता, पुत्र की बात को सुन  गम्भीर हुये और बोले बेटा ! किसी गरीब और कमजोर के साथ उसकी जरूरत की वस्तु के साथ इस तरह का भद्दा मजाक कभी न करना. जिन चीजों की तुम्हारी नजरों में कोई कीमत नहीं,

वो उस गरीब के लिये बेशकीमती हैं. तुम्हें ये शाम यादगार ही बनानी है, तो आओ .. आज हम इन जूतों में कुछ सिक्के डाल दें और छुप कर देखें कि ... इसका मजदूर पर क्या प्रभाव पड़ता है.पिता ने ऐसा ही किया और दोनों पास की ऊँची झाड़ियों में छुप गए.

मजदूर जल्द ही अपना काम ख़त्म कर जूतों की जगह पर आ गया. उसने जैसे ही एक पैर जूते में डाले उसे किसी कठोर चीज का आभास हुआ, उसने जल्दी से जूते हाथ में लिए और देखा कि ...अन्दर कुछ सिक्के पड़े थे.

उसे बड़ा आश्चर्य हुआ और वो सिक्के हाथ में लेकर बड़े गौर से उन्हें देखने लगा. फिर वह इधर-उधर देखने लगा कि उसका मददगार शख्स कौन है? दूर-दूर तक कोई नज़र नहीं आया, तो उसने सिक्के अपनी जेब में डाल लिए. अब उसने दूसरा जूता उठाया,  उसमें भी सिक्के पड़े थे.

मजदूर भाव विभोर हो गया.

वो घुटनो के बल जमीन पर बैठ ...आसमान की तरफ देख फूट-फूट कर रोने लगा. वह हाथ जोड़ बोला
हे भगवान् ! आज आप ही किसी रूप में यहाँ आये थे, समय पर प्राप्त इस सहायता के लिए आपका और आपके  माध्यम से जिसने भी ये मदद दी,उसका लाख-लाख धन्यवाद.
आपकी सहायता और दयालुता के कारण आज मेरी बीमार पत्नी को दवा और भूखे बच्चों को रोटी मिल सकेगी.तुम बहुत दयालु हो प्रभु ! आपका कोटि-कोटि धन्यवाद.

मजदूर की बातें सुन ... बेटे की आँखें भर आयीं.
पिता ने पुत्र को सीने से लगाते हुयेे कहा ~क्या तुम्हारी मजाक मजे वाली बात से जो आनन्द तुम्हें जीवन भर याद रहता उसकी तुलना में इस गरीब के आँसू और दिए हुये आशीर्वाद तुम्हें जीवन पर्यंत जो आनन्द देंगे वो उससे कम है, क्या ?

पिताजी .. आज आपसे मुझे जो सीखने को मिला है, उसके आनंद को मैं अपने अंदर तक अनुभव कर रहा हूँ. अंदर में एक अजीब सा सुकून है.

आज के प्राप्त सुख और आनन्द को मैं जीवन भर नहीं भूलूँगा. आज मैं उन शब्दों का मतलब समझ गया जिन्हें मैं पहले कभी नहीं समझ पाया था. आज तक मैं मजा और मस्ती-मजाक को ही वास्तविक आनन्द समझता था, पर आज मैं समझ गया हूँ कि लेने की अपेक्षा देना कहीं अधिक आनंददायी है.

परमात्मा भाग-6

ज्ञान योग

वास्तव में ज्ञान योग पूर्णतः जीव कल्याण के लिए सक्षम है परन्तु है बहुत कठिन मार्ग। क्योंकि ज्ञान मार्ग में मनुष्य को ब्रह्म के उस स्वरूप का  ध्यान करना है जिसका न कोई आकार है, न कोई रूप है, न कोई नाम है। इसके अलावा त्रिगुणात्मक माया के आधीन मनुष्य की इंद्रीय, मन, बुद्धि भी मायिक होती हैं और मायिक इंद्रीय, मन, बुद्धि से माया से परे निराकार ब्रह्म का ध्यान करना असम्भव जैसा है क्योंकि प्राकृतिक इंद्रीय मन बुध्दि का सेवा कर्म माया का एरिया ही है माया से परे प्राकृतिक इंद्रीय मन बुध्दि की पहुँच नहीं है। रामायण कहती है कि -

कहत कठिन समुझत कठिन साधत कठिन विवेक।
होई घुनाच्छर न्याय जो पुनः प्रत्युह अनेक।।

भावार्थ यह है कि ज्ञान योग कहने में कठिन समझाना व समझना कठिन है और इस मार्ग की साधना भी कठिन है। यदि इस  मार्ग पर कोई साधक चल भी पड़ा  तो बार बार गिर पड़ता है। आगे रामायण कहती है कि -

ज्ञान पंथ कृपान कै धारा।
परत खगेश न लागई बारा।।

कागभुसण्डी जी गरूड़ जी से कहते हैं कि ज्ञान मार्ग तलवार की धार जैसा है इस मार्ग में मनुष्य को गिरते देर नहीं लगती ।

ज्ञान मार्ग  और परमात्मा  के  मिलन में माया प्रकृति ही वास्तविक और सबसे बड़ी बाधा है। ज्ञान मार्ग का  साधक जब साधना आदि करते हुए अपने ज्ञान मार्ग पर चलता है तो उसका अपना बल होता है और यही कारण है कि उसे अपने ज्ञान का अहंकार हो जाता है और वह समझता है कि उसे भगवान की कृपा की आवश्यकता नहीं है बस यही मौका पाकर माया ज्ञानी का पतन कर देती है, बड़े बड़े  सन्तो का माया प्रकृति के द्वारा पतन होते हुए देखा गया है, क्योंकि ज्ञानी को अपने बल पर साधना आदि करके ज्ञान मार्ग पर चलना होता है अब चूँकि माया उससे अधिक बलवान है इस लिए उस साधक का पतन कर देती है। ऐसे साधक के ब्रह्म ज्ञान होने तक माया उसका साथ नहीं छोड़ती इस लिए यह मार्ग बहुत कठिन है।
              

अंधों की गणना

एक बार बादशाह अकबर ने बीरबल को राज्य के अंधों की सूची लाने का आदेश दिया. एक दिन में ये कार्य असंभव था. इसलिए बीरबल ने अकबर से एक सप्ताह का समय मांग लिया.

अगले दिन बीरबल दरबार में उपस्थित नहीं हुआ. वह एक थैला लेकर नगर के हाट बाज़ार में गया और बीचों-बीच एक स्थान पर बैठ गया. फिर उसने अपने थैले से जूता निकला और उसे सिलने लगा.


आते-जाते लोगों ने जब बीरबल को जूता सिलते हुए देखा, तो हैरत में पड़ गए. बादशाह अकबर के सलाहकार और राज्य के सबसे बड़े विद्वान व्यक्ति के बीच बाज़ार बैठकर जूते सिलने की बात किसी के गले नहीं उतर रही थी.

कई लोगों से रहा नहीं गया और वे बीरबल से पूछ ही बैठे, “महाशय! ये आप क्या कर रहे हैं?”

इस सवाल का जवाब देने के बजाय बीरबल ने अपने थैले में से एक कागज निकाला और उसमें कुछ लिखने लगा. इसी तरह दिन गुरजते रहे और बीरबल का बीच बाज़ार बैठकर जूते सिलने का सिलसिला जारी रहा.

“ये आप क्या कर रहे हैं?” जब भी ये सवाल पूछा जाता, वह कागज पर कुछ लिखने लगता. धीरे-धीरे पूरे नगर में ये बात फ़ैल गई कि बीरबल पागल हो गया है.

एक दिन बादशाह अकबर का काफ़िला उसी बाज़ार से निकला. जूते सिलते हुए बीरबल पर जब अकबर की दृष्टि पड़ी, तो वे बीरबल के पास पहुँचे और सवाल किया, “बीरबल! ये क्या कर रहे हो?”


बीरबल अकबर के सवाल का जवाब देने के बजाय कागज पर कुछ लिखने लगा. ये देख अकबर नाराज़ हो गए और अपने सैनिकों से बोले, “बीरबल को पकड़ कर दरबार ले चलो.”

दरबार में सैनिकों ने बीरबल को अकबर के सामने पेश किया. अकबर बीरबल से बोले, “पूरे नगर में ये बात फ़ैली हुई है कि तुम पागल हो गए हो. आज तो हमने भी देख दिया. क्या हो गया है तुम्हें?”

जवाब में बीरबल ने एक सूची अकबर की ओर बढ़ा दी. अकबर हैरत से उस सूची को देखने लगे.

तब बीरबल बोला, “जहाँपनाह! आपके आदेश अनुसार राज्य के अंधों की सूची तैयार है. आज हफ्ते का आखिरी दिन है और मैंने अपना काम पूरा कर लिया है.”

सूची काफ़ी लंबी थी. अकबर सूची लेकर उसमें लिखे नाम पढ़ने लगे. पढ़ते-पढ़ते जब वे सूची के अंत में पहुँचे, तो वहाँ अपना नाम लिखा हुआ पाया. फिर क्या? वे बौखला गए.


“बीरबल! तुम्हारी ज़ुर्रत कैसे हुई हमारा नाम इस सूची में डालने की?” अकबर बीरबल पर बिफ़रने लगे.

“गुस्सा शांत करें हुज़ूर, मैं सब बता रहा हूँ.” कहकर बीरबल बताने लगा, “बादशाह सलामत!  पिछले एक सप्ताह से मैं रोज़ बीच बाज़ार जाकर जूते सिल रहा था. मेरे क्रिया-कलाप हर आते-जाते व्यक्ति को नज़र आ रहे थे. तिस पर भी वे आकर मुझसे पूछते कि मैं क्या कर रहा हूँ और मैं उनका नाम अंधों की सूची में डाल देता. सब आँखें होते हुए भी अंधे थे हुज़ूर. गुस्ताखी माफ़ हुज़ूर, ये सवाल आपने भी किया था, इसलिए आपका नाम भी इस सूची में है.”

अब अकबर क्या कहते ??? वे निरुत्तर हो गए....

परमात्मा भाग-6

अकर्म 

अकर्म कर्म क्या है?
भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को सर्वगुह्यतम रहस्य बताते हुए कहते हैं -

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्करु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन जिस मन के कारण तू युद्ध करने से डर रहा है वही अपना मन मुझे अर्पित कर दे फिर तू बिना किसी डर के निडर होकर युद्ध कर फिर तुझे युद्ध सम्बन्धी कर्म का फल ही नहीं मिलेगा। अब अर्जुन ने भगवान के कहने पर अपना मन, बुद्धि भगवान को समर्पित कर दिया उसके बाद अर्जुन ने युद्ध रूपी कर्म किया लेकिन नहीं किया क्योंकि अर्जुन के मन और बुद्धि में भगवान श्रीकृष्ण प्रवेश कर गये   अब युद्ध रूपी कर्म अर्जुन ने नहीं बल्कि भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं किया, इसी को अकर्म कर्म कहते हैं। अब अर्जुन को एक शंका फिर  हुई उसने भगवान से कहा प्रभु जो  मेरे सन्चित कर्म है वो कैसे समाप्त होंगें, फिर भगवान अर्जुन से कहते हैं कि -

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।

भगवान कहते हैं कि तू अपना मन बुध्दि मुझे अर्पण करके और समस्त धर्मो का परित्याग करके केवल एक ही धर्म  और वो यह कि केवल अनन्य रूप से मेरी शरण में आजा चिन्ता मत कर मैं पलभर में ही तेरे समस्त पाप पुण्य समाप्त कर दुंगा। इसके बाद भगवान अर्जुन से कहते हैं कि -

कच्चिदेतच्छुतं पार्थ त्वैयकाग्रेण चेतसा।
कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञज्य।।

भगवान कहते हैं कि हे अर्जुन तूने मेरी बात को एकाग्रता से सुना उसके बाद अब तूने क्या करना है क्या तेरा अज्ञान से उत्पन्न मोह नष्ट हो गया, तब अर्जुन कहता है कि हाँ प्रभु आपकी कृपा से मेरा अज्ञान से उत्पन्न मोह समाप्त हो गया अब निडर होकर युद्ध करुंगा।

अब आगे भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि -

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं  निवेशय।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊध्र्वं न संशयः।।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन अपने मन बुध्दि को मुझमें प्रविष्ट कर निसन्देह इसके बाद तू मुझमें ही निवास करेगा । भागवत महापुराण से भी प्रमाणित किया जा रहा है। भगवान श्रीकृष्ण उद्धव से कहते हैं कि -

कुर्यात् सर्वाणि कर्माणि मदर्थं शनकैः स्मरन्।
मय्यर्पितमनश्चित्तो मद्धर्मात्ममनोरतिः।।

भगवान कहते हैं कि हे उद्धवजी मेरे भक्त को चाहिए कि अपने सारे कर्म मेरे लिए ही करे और उन कर्मो को करते समय धीरे - धीरे मेरे स्मरण का अभ्यास  बढ़ाये। कुछ ही दिनो में उसके मन और चित्त मुझमें समर्पित हो जायेगें। उसके मन और आत्मा मेरे ही धर्मो में रम जायेगें। आगे इसको वेदो से भी प्रमाणित किया जा रहा है -

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत  समाः।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।

ये वेदमन्त्र कहरहा है कि समस्त जगत के एकमात्र कर्ता, धर्ता, हर्ता, सर्वशक्तिमान परमेश्वर का स्मरण करते हुए, सब कुछ उन्हीं का समझते हुए उन्हीं की पूजा के लिए शास्त्रनियत कर्तव्यकर्मो का आचरण करते हुए ही 100 वर्ष तक जीने की इच्छा करो -- इस प्रकार अपने पूरे जीवन को परमेश्वरके प्रति समर्पण करदो।

इस प्रकार बहुत ही संक्षेप में अकर्म पर प्रकाश डाला गया।

(4) कर्मसन्यास - कर्मसन्यास मोक्ष की अन्तिम अवस्था है। इस अवस्था में जीवात्मा समस्त संसार प्रपंच से उपर उठ जाता है, वह सभी रिश्ते नातों से विरक्त होकर आत्मस्वरूप में ही रमण करता है।



            

Saturday, April 6, 2019

परमात्मा भाग-5

चर्चा अकर्म कर्म की चल रही है। एक तरफ तो शास्त्र कहते हैं कि निःसन्देह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृतिजनित  गुणो द्वारा परबस हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है। कर्म करना ही पड़ता है। कर्म क्यों करना पड़ता है यह भी एक बड़ा रहस्य है। इस रहस्य के बारे में मैं पहले बता चुका हूँ दोबारा बाद में कभी इस सम्बन्ध में चर्चा अवश्य करेंगे। हाँ तो बात यह चल रही थी कि कर्म करें तो जन्म - मरण होता है और कर्म न करे तो ईश्वर प्राप्ति होती है अजीब पहेली है। ऐसी दशा में हम शास्त्रों  को आधार मानकर ही इस पहेली को सुलझा सकते है। शास्त्र कहते हैं कि " मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयोः " मन ही है मनुष्यो के बन्धन और मुक्ति का कारण,  अच्छे बुरे समस्त कर्म मन के द्वारा ही होते हैं। महापुरुष कहते हैं कि परमात्मा मन से किये  हुए कर्मो को ही नोट करते हैं अन्य इंद्रीयो का वर्क भगवान नोट नहीं करते।

धर्म, विकर्म, अकर्म, कर्मसन्यास, ये सब कर्म मन के द्वारा ही होते हैं। ये मन जब तक हमारे साथ रहकर अथवा हमें बहकावे में डालकर माया सम्बन्धी कर्म करता रहेगा तब जन्म - मरण की प्रक्रिया चलती रहेगी। यदि हम किसी वास्तविकता मायातीत महापुरुष के कहने से अपने मन को परमात्मा को समर्पित करदे तदुपरांत हमारे द्वारा किये गये समस्त कर्म अकर्म में बदल जायेगें। अर्जुन ने महाभारत में जब युद्ध करने के लिए श्रीकृष्ण से साफ मना कर दिया तब भगवान श्रीकृष्ण ने यही ज्ञान अर्जुन को दिया था -

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्ध च। मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्।।

हे अर्जुन तू अपने मन  से हर समय मेरा ही चिन्तन करते हुए युद्ध कर ऐसा करने से युद्ध रूपी कर्म करने के साथ - साथ निसन्देह  ही मुझे प्राप्त कर लेगा।

मय्यर्पितमनोबुद्धिः -- भगवान को मन और बुद्धि अर्पित करने का साधारण अर्थ है कि मन से परमात्मा का चिन्तन हो और बुद्धि से परमात्मा का निश्चय किया जाये। परन्तु इसका वास्तविक अर्थ है -- मन, बुद्धि, इंद्रीया, शरीर आदि को भगवान के ही मानना, कभी भूल से भी इनको अपने न मानना ।

अपने आप जो कर्म करता है वह कर्म है उसका फल है जन्म - मरण और जीव का जो कर्म स्वयं भगवान करते हैं  वह कर्म अकर्म होता है उस कर्म का फल ईश्वर प्राप्ति है। इसको प्रमाणित करने के लिए भगवत गीता का सहारा लेते हैं। भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को 18 अध्याय 700 श्लोक भगवत गीता  में ज्ञान दिया परन्तु अर्जुन को युद्ध कर्म के फल का डर लग रहा था । भगवान श्री कृष्ण के द्वारा समस्त प्रयास करने पर भी जब अर्जुन युद्ध करने को तैयार नहीं हुआ तब भगवान अन्तिम ब्रह्मास्त्र रूपी वचन अर्जुन से कहते हैं कि --

सर्वगुह्यतम भूयः श्रृणु मे परमं वचः ।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्ययामि ते हितम।।

भगवान कहते हैं कि तुम मेरे परम मित्र हो अतएव फिर से परम गोपनीय रहस्य मेरे से सुनो और फिर जो भी आपका मन कहे  वही करो उसके बाद मैं युद्ध सम्बन्धी बात नहीं करुंगा। अब अर्जुन सावधान हो गया और तब भगवान अत्यन्त गोपनीय रहस्य अर्जुन को बताते हैं।
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झूठा बेटा

"मम्मी , मम्मी ! मैं उस बुढिया के साथ स्कुल नही जाउँगा ना ही उसके साथ वापस आउँगा " मेरे दस वर्ष के बेटे ने गुस्से से अपना स्कुल बैग फेकतै हुए कहा तो मैं बुरी तरह से चौंक गई !

यह क्या कह रहा है? अपनी दादी को बुढिया क्यों कह रहा है? कहाँ से सीख रहा है इतनी बदतमीजी?

मैं सोच ही रही थी कि बगल के कमरे से उसके चाचा बाहर निकले और पुछा-"क्या हुआ बेटा?"

उसने फिर कहा -"चाहे कुछ भी हो जाए मैं उस बुढिया के साथ स्कुल नहीं जाउँगा हमेशा डाँटती रहती है और मेरे दोस्त भी मुझे चिढाते हैं !"

घर के सारे लोग उसकी बात पर चकित थे
घर मे बहुत सारे लोग थे मैं और मेरे पति, दो देवर और देवरानी , एक ननद , ससुर और नौकर भी !

फिर भी मेरे बेटे को स्कुल छोडने और लाने की जिम्मेदारी उसकी दादी की ही थी पैरों मे दर्द रहता था पर पोते के प्रेम मे कभी शिकायत नही करती थी बहुत प्यार करती थी उसको क्योंकि घर का पहला पोता था।

पर अचानक बेटे के मुँह से उनके लिए ऐसे शब्द सुन कर सबको बहुत आश्चर्य हो रहा था शाम को खाने पर उसे बहुत समझाया गया पर वह अपनी जिद पर अडा रहा 


पति ने तो गुस्से मे उसे थप्पड़ भी मार दिया तब सबने तय किया कि कल से उसे स्कुल छोडने और लेने माँजी नही जाएँगी !!!

अगले दिन से कोई और उसे लाने ले जाने लगा पर मेरा मन विचलित रहने लगा कि आखिर उसने ऐसा क्यों किया?
मै उससे कुछ नाराज भी थी !

शाम का समय था मैने दुध गर्म किया और बेटे को देने के लिए उसे ढुँढने लगी मैं छत पर पहुँची तो बेटे के मुँह से मेरे बारे मे बात करते सुन कर मेरे पैर ठिठक गये...
मैं छुपकर उसकी बात सुनने लगी वह अपनी दादी के गोद मे सर रख कर कह रहा था-

"मैं जानता हूँ दादी कि मम्मी मुझसे नाराज है पर मैं क्या करता?
इतनी ज्यादा गरमी मे भी वो आपको मुझे लेने भेज देते थे ! आपके पैरों मे दर्द भी तो रहता है मैने मम्मी से कहा तो उन्होंने कहा कि दादी अपनी मरजी से जाती हैं !
दादी मैंने झुठ बोला......बहुत गलत किया पर आपको परेशानी से बचाने के लिये मुझे यही सुझा...

आप मम्मी को बोल दो मुझे माफ कर दे "

वह कहता जा रहा था और मेरे पैर तथा मन सुन्न पड़ गये थे मुझे अपने बेटे के झुठ बोलने के पीछे के बड़प्पन को महसुस कर गर्व हो रहा था....
मैने दौड कर उसे गले लगा लिया और बोली-"नहीं , बेटे तुमने कुछ गलत नही किया

हम सभी पढे लिखे नासमझो को समझाने का यही तरीका था..शाबाश... बेटा !!!

परमात्मा भाग-4

श्रीमद्भागवत महापुराण में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि :-

योगास्त्रयो मया प्रोक्ता नृणां श्रेयोविधित्सया।
ज्ञानं कर्म च भक्तिश्च नोपायोऽन्योऽस्ति कुत्रचित्।।

भगवान कहते हैं कि मैने ही वेदो में एवं अन्यत्र भी मनुष्यो का कल्याण करनेके लिए तीन प्रकार के योगों का उपदेश किया है। (1)कर्म (2) ज्ञान (3)भक्ति। मनुष्यो के परम कल्याण के लिए इनके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय कहीं नहीं है।

(1)- कर्म चार प्रकार के महापुरुषो ने बताये है। 1- कर्म धर्म 2- विकर्म 3- अकर्म 4- कर्म सन्यास।

(1)- कर्म धर्म, ऐसे कर्म धर्म वेदशास्त्रो के नियम का पालन करते हुए तो किये जाते हैं परन्तु ये कर्म भगवान को समर्पित करके नहीं किये जाते, इस लिए महापुरुष कहते हैं कि ऐसे कर्म भी नश्वर होते हैं और ऐसे कर्मो का फल भी नश्वर होता है। इसकी पुष्टि स्वयं वेदशास्त्र ही करते हैं।

इष्टापूर्तं मन्यमाना वरिष्ठंनान्यच्छ्रेयो वेदयन्ते प्रमूढाः।
नाकस्य पृष्ठे ते सुकृतेऽनुभूत्वेमं लोकं हीनतरं वा विशन्ति।।

भावार्थ यह है कि वेद और स्मृति आदि शास्त्रो में सांसारिक सुखो की प्राप्ति के जितने भी साधन बताये गये हैं उन्हीं को सर्वश्रेष्ठ कल्याण के साधन मानते हैं ऐसे लोग महामूर्ख  होते हैं। अतः वे अपने पुण्य कर्मो के फलस्वरूप स्वर्गलोकतक के सुखों को भोगकर पुण्य समाप्त होने पर पुनः इस मनुष्य लोक में अथवा इससे भी नीची कुत्ता, गधा, बिल्ली, सुअर,साँप बिच्छू आदि योनियो में या रौरवादि घोर नरको में चले जाते हैं।

जो कर्म वेदशास्त्रो के नियम का पालन करते हुए तो किये जाते हैं परन्तु परमात्मा को समर्पित करके नहीं किये जाते हैं तो ऐसे कर्म भी नश्वर है और इन कर्मो का फल भी नश्वर है,इसकी पुष्टि भी वेदशास्त्रो से की गई। रामायण भी इसकी पुष्टि करती है :-

सौ सुख करमु धरमु जरि जाहु।
जो न राम पद पंकज भाऊ  ।।

भावार्थ यह है कि ऐसे कर्म धर्म और उनसे मिलने वाला सुख आग में जल जायें जिन कर्म धर्म से भगवान के चरणों में अनुराग नहीं होता। कुल मिलाकर  ऐसे कर्म धर्म हमारे किसी काम के नहीं है।

(2)- विकर्म - विकर्म ऐसे कर्म है कि जो न तो वेदशास्त्रो के नियम का पालन करते हुए किये है और न ही भगवान को समर्पित करके किये जाते हैं, ऐसे कर्मो के फल से विभिन्न नर्को की प्राप्ति होती है। ऐसे कर्मो के द्वारा जीव कीट पतंग योनियो में जाता है।

अब तक कर्म मार्ग में कर्म धर्म व विकर्म पर बहुत ही संक्षेप में चर्चा  की गई अब बिन्दू संख्या 3 अकर्म  पर चर्चा  करते हैं।

(3)- अकर्म :   वास्तव में अकर्म से ही ईश्वर प्राप्ति होती है। कर्म का मतलब है करना और अकर्म का मतलब है कुछ नहीं करना । अब आपके मन में यह प्रश्न अवश्य ही उठ रहा होगा कि जब कुछ करना ही नहीं है तो परमात्मा की प्राप्ति कैसे हो जायेगी  ?  हाँ यह बात 100 प्रतिशत सत्य है कि अकर्म से ही ईश्वर प्राप्ति होगी। यह एक गोपनीय रहस्य है। हम कर्म करते हैं तो उन कर्मो का फल मिलता है

अच्छा कर्म करेंगे तो अच्छा फल मिलेगा और पाप कर्म करेंगे तो बुरा फल मिलेगा और दोनों तरह के कर्मो का फल भोगने के लिए जन्म तो लेना ही पड़ेगा। निष्कर्ष यह निकला कि चाहे बड़े से बड़ा पुण्य कर्म करो या बड़े से बड़ा पाप कर्म करो, जन्म-मृत्यु छुटकारा नहीं मिलता और यदि न तो अच्छे कर्म करो और न बुरे कर्म करो तो न अच्छा फल मिलेगा और न बुरा फल मिलेगा और जब हमारे जीवन के खाते में  किसी भी कर्म का फल होगा  ही नहीं तो कर्म फल भोगने के लिए जन्म ही नहीं लेना पड़ेगा और जब जन्म ही नहीं होगा तो मृत्यु तो होगी ही नहीं, हो गया न जन्म-मृत्यु से छुटकारा। लेकिन भगवत गीता तो कहती है कि -

न हि कशिचतक्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत।

भावार्थ यह है कि ब्रह्मांड में कोई भी व्यक्ति एक क्षण को भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता  कर्म करना मनुष्य की मजबूरी है।

Friday, April 5, 2019

गमले के पौधे और जंगल के पौधे

बाज पक्षी जिसे हम ईगल या शाहीन भी कहते है। जिस उम्र में बाकी परिंदों के बच्चे चिचियाना सीखते है उस उम्र में एक मादा बाज अपने चूजे को पंजे में दबोच कर सबसे ऊंचा उड़ जाती है। पक्षियों की दुनिया में ऐसी Tough and tight training किसी भी ओर की नही होती।

मादा बाज अपने चूजे को लेकर लगभग 12 Km ऊपर ले जाती है। जितने ऊपर अमूमन जहाज उड़ा करते हैं और वह दूरी तय करने में मादा बाज 7 से 9 मिनट का समय लेती है।

यहां से शुरू होती है उस नन्हें चूजे की कठिन परीक्षा।

उसे अब यहां बताया जाएगा कि तू किस लिए पैदा हुआ है?

तेरी दुनिया क्या है?

तेरी ऊंचाई क्या है?

तेरा धर्म बहुत ऊंचा है

और फिर मादा बाज उसे अपने पंजों से छोड़ देती है।

धरती की ओर ऊपर से नीचे आते वक्त लगभग 1 Km उस चूजे को आभास ही नहीं होता कि उसके साथ क्या हो रहा है।

6 Km के अंतराल के आने के बाद उस चूजे के पंख जो कंजाइन से जकड़े होते है, वह खुलने लगते है।

लगभग 8 Km आने के बाद उनके पंख पूरे खुल जाते है। यह जीवन का पहला दौर होता है जब बाज का बच्चा पंख फड़फड़ाता है।

अब धरती से वह लगभग 1000 मीटर दूर है ,लेकिन अभी वह उड़ना नहीं सीख पाया है। अब धरती के बिल्कुल करीब आता है जहां से वह देख सकता है उसके स्वामित्व को।

अब उसकी दूरी धरती से महज 700/800 मीटर होती है लेकिन उसका पंख अभी इतना मजबूत नहीं हुआ है की वो उड़ सके।

धरती से लगभग 400/500 मीटर दूरी पर उसे अब लगता है कि उसके जीवन की शायद अंतिम यात्रा है। फिर अचानक से एक पंजा उसे आकर अपनी गिरफ्त मे लेता है और अपने पंखों के दरमियान समा लेता है।
यह पंजा उसकी मां का होता है जो ठीक उसके उपर चिपक कर उड़ रही होती है और उसकी यह ट्रेनिंग निरंतर चलती रहती है जब तक कि वह उड़ना नहीं सीख जाता।

यह ट्रेनिंग एक कमांडो की तरह होती है। तब जाकर दुनिया को एक बाज़ मिलता है अपने से दस गुना अधिक वजनी प्राणी का भी शिकार करता है।

हिंदी में एक कहावत है... "बाज़ के बच्चे मुँडेर पर नही उड़ते।"

बेशक अपने बच्चों को अपने से चिपका कर रखिए पर... उसे दुनियां की मुश्किलों से रूबरू कराइए, उन्हें लड़ना सिखाइए। बिना आवश्यकता के भी संघर्ष करना सिखाइए।

अपने बच्चे को राष्ट्र व धर्म की रक्षा के लिए सदैव तैयार रहना.. सिखाईये .. आसान रास्तों के लिए गद्दार मुंडेरो पर नहीं .. देशभक्ति का संकल्प लेकर एक अनन्त  ऊंचाई तक ले जायें ...

ये TV के रियलिटी शो और अंग्रेजी स्कूल की बसों ने मिलकर आपके बच्चों को "ब्रायलर मुर्गे" जैसा बना दिया है जिसके पास मजबूत टंगड़ी तो है पर चल नही सकता। वजनदार पंख तो है पर उड़ नही सकता क्योंकि...

"गमले के पौधे और जंगल के पौधे में बहुत फ़र्क होता है।"

परमात्मा भाग-3

चर्चा यह चल रही थी कि परमात्मा को कैसे प्राप्त करे, परमात्मा को कैसे जाने। यह बात भी बताई गयी कि तीन तत्व हैं जीव, माया, ब्रह्म अथवा ईश्वर। जीव और ईश्वर के बीच में त्रिगुणात्मक माया है जो हमे परमात्मा तक पहुँचने में  सबसे बड़ी बाधा है। माया परमात्मा की शक्ति है अब इस माया को पराजित करके ही हम ईश्वर तक पहुँच सकते हैं जो कि असम्भव है  क्योंकि पहले यह बताया जा चुका है आप भूले न होंगे कि जिस माया से श्रृष्टि के रचने वाले ब्रह्मा जी, श्रृष्टि का पालन पोषण करने वाले विष्णु जी, श्रृष्टि का महाप्रलय करने वाले शंकर भगवान जी, ये तीनो भी भगवान की इस माया से डरते हैं इसका मैने शास्त्रो से प्रमाण भी दिया था। अब ऐसे हालात में आप विचार करें कि हम जीव माया को कैसे जीत सकते हैं और कैसे परमात्मा तक पहुँच सकते हैं, लेकिन ऐसा हुआ है इतिहास गवाह है कि कितने ही जीवो ने माया पर विजय प्राप्त करके ईश्वर  को जाना है ईश्वर को प्राप्त किया है।

 ऐसी भगवान की माया जिससे ब्रह्मा शंकर भी भयभीत होते हैं, ऐसी माया पर कितने ही जीवो ने विजय प्राप्त की है और ईश्वर को पाया है। दरअसल माया को मायापति की कृपा से ही जीत सकते हैं इसके अतिरिक्त अन्य कोई ऐसा साधन नहीं है जो अपने बल पर माया प्रकृति पर विजय प्राप्त कर सके। तुलसीदास जी कहते हैं कि :-

सिव बिरन्च कहुँ मोहइ को है बपुरा आन।
अस जिय जान भजेहि मुनि मायापति भगवान।।

भगवान श्री कृष्ण ने स्पष्ट रूप से कहा है कि :-

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।

प्रकृति के तीन गुणो वाली इस मेरी दैवी शक्ति को पार कर पाना कठिन ही नहीं असम्भव है। किन्तु जो जीव मेरी ही शरण में आ जाते हैं अथवा पूर्णरूप से मेरे शरणागत हो जाते हैं ऐसे उन शरणागत जीवो को मैं अपनी कृपा से माया से पार कर देता हूँ।
                   


ईश्वरचंद्र विद्यासागर

एक बालक नित्य विद्यालय पढ़ने जाता था। घर में उसकी माता थी। माँ अपने बेटे पर प्राण न्योछावर किए रहती थी, उसकी हर माँग पूरी करने में आनंद का अनुभव करती। बालक भी पढ़ने-लिखने में बड़ा तेज़ और परिश्रमी था। खेल के समय खेलता, लेकिन पढ़ने के समय पढने का ध्यान रखता।

एक दिन दरवाज़े पर किसी ने- “माई! ओ माई!” पुकारते हुए आवाज़ लगाई तो बालक हाथ में पुस्तक पकड़े हुए द्वार पर गया, देखा कि एक फटेहाल बुढ़िया काँपते हाथ फैलाए खड़ी थी।

उसने कहा- “बेटा! कुछ भीख दे दे।“

बुढ़िया के मुँह से बेटा सुनकर वह भावुक हो गया और माँ से आकर कहने लगा- “माँ! एक बेचारी गरीब माँ मुझे ‘बेटा’  कहकर कुछ माँग रही है।“

उस समय घर में कुछ खाने की चीज़ थी नहीं, इसलिए माँ ने कहा- “बेटा! रोटी-भात तो कुछ बचा नहीं है, चाहे तो चावल दे दो।“

इसपर बालक ने हठ करते हुए कहा- “माँ! चावल से क्या होगा? तुम जो अपने हाथ में सोने का कंगन पहने हो, वही दे दो न उस बेचारी को। मैं जब बड़ा होकर कमाऊँगा तो तुम्हें दो कंगन बनवा दूँगा।“

माँ ने बालक का मन रखने के लिए सच में ही सोने का अपना वह कंगन कलाई से उतारा और कहा- "लो, दे दो।"

बालक खुशी-खुशी वह कंगन उस भिखारिन को दे आया। भिखारिन को तो मानो ख़ज़ाना ही मिल गया। उसका पति अंधा था। कंगन बेचकर उसने परिवार के बच्चों के लिए अनाज, कपड़े आदि जुटा लिए। उधर वह बालक पढ़-लिखकर बड़ा विद्वान हुआ, काफ़ी नाम कमाया।

उसे बचपन का अपना वचन याद था। एक दिन वह माँ से बोला- “माँ! तुम अपने हाथ का नाप दे दो, मैं कंगन बनवा दूँ।“

पर माता ने कहा- “उसकी चिंता छोड़। मैं इतनी बूढ़ी हो गई हूँ कि अब मुझे कंगन शोभा नहीं देंगे। हाँ, कलकत्ते के तमाम ग़रीब बालक विद्यालय और चिकित्सा के लिए मारे-मारे फिरते हैं, उनके लिए तू एक विद्यालय और एक चिकित्सालय खुलवा दे जहाँ निशुल्क पढ़ाई और चिकित्सा की व्यवस्था हो।"

बेटे ने ऐसा ही किया। माँ के उस बेटे का नाम ईश्वरचंद्र विद्यासागर है।

परमात्मा भाग-2

अब तक यह बताया गया तथा वेदशास्त्रो, पुराणो आदि से प्रमाणित किया गया कि परमात्मा को कोई नहीं नहीं जान सकता है।  परन्तु वेदशास्त्र, पुराण यह भी कहते हैं कि परमात्मा को 100 प्रतिशत जाना जा सकता है और कितने ही भक्तो ने ईश्वर को जाना है, ईश्वर को प्राप्त किया है।

            आज से इसी बात पर चर्चा होगी कि परमात्मा को कैसे प्राप्त करे परमात्मा को कैसे जाने। तीन तत्व हैं (1) जीव (2)माया अथवा प्रकृति (3)ब्रह्म, जीव माया के आधीन है और माया तथा जीव ये दोनो परमात्मा के आधीन हैं। परमात्मा  जीव, माया पर शासन करता है। इसकी पुष्टि ये वेदमन्त्र करता है :-

क्षरं प्रधानममृताक्षरं हरः क्षरात्मनावीशते देव एकः ।
तस्याभिध्यानाद्योजनात्तत्वभावाद्भूश्चान्ते विश्वमायानिवृत्तिः।।

प्रधानम् का मतलब है माया प्रकृति जो क्षर है परिवर्तन व विनाशशील है। अक्षर का मतलब है जीव जो अमृताक्षरम् अथवा अविनाशी है। क्षरात्मनावीशते देव एकः इसका मतलब है कि क्षर और अक्षर इन दोनों पर एक ईश्वर  शासन करता है।

            चूँकि जीव माया के आधीन है माया से परे होने पर ही ब्रह्मसाक्षात्कार होगा। मायाधीन जीवात्मा को ब्रह्म का दर्शन नहीं होगा।
               

Thursday, April 4, 2019

परमात्मा

बात है परमात्मा को जानने की,

शास्त्रो, वेदो से, पुराणो से  पमाणित किया गया कि परमात्मा को प्राकृतिक इंद्रीय मन वाणी बुद्धि से न तो देख सकते हैं न जान सकते हैं।

             जो इंद्रीय मन वाणी बुद्धि जिस परमात्मा के किसी एक अंश की शक्ति से अपना अपना कार्य करती हैं वही वास्तव में ब्रह्म है, जिस ब्रह्म की उपासना  हमारी प्राकृतिक इंद्रीय मन वाणी बुद्धि करती हैं वह ब्रह्म का वास्तविक स्वरूप नहीं है। जो मनुष्य यह कहते हैं कि हमने ईश्वर को जान लिया है, देखलिया है ऐसा वे अपने अहंकार वश कहते हैं, जो मनुष्य यह कहते हैं कि परमात्मा परमात्मा को प्राकृतिक इंद्रीय मन वाणी बुद्धि से परमात्मा के आदि अन्त और मध्य का पता नहीं लग सकता है वास्तव में वही मनुष्य ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप को जानता है। इसकी पुष्टि ये वेदमन्त्र करता है -

यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः।
अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम्।।