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Saturday, April 6, 2019

परमात्मा भाग-4

श्रीमद्भागवत महापुराण में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि :-

योगास्त्रयो मया प्रोक्ता नृणां श्रेयोविधित्सया।
ज्ञानं कर्म च भक्तिश्च नोपायोऽन्योऽस्ति कुत्रचित्।।

भगवान कहते हैं कि मैने ही वेदो में एवं अन्यत्र भी मनुष्यो का कल्याण करनेके लिए तीन प्रकार के योगों का उपदेश किया है। (1)कर्म (2) ज्ञान (3)भक्ति। मनुष्यो के परम कल्याण के लिए इनके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय कहीं नहीं है।

(1)- कर्म चार प्रकार के महापुरुषो ने बताये है। 1- कर्म धर्म 2- विकर्म 3- अकर्म 4- कर्म सन्यास।

(1)- कर्म धर्म, ऐसे कर्म धर्म वेदशास्त्रो के नियम का पालन करते हुए तो किये जाते हैं परन्तु ये कर्म भगवान को समर्पित करके नहीं किये जाते, इस लिए महापुरुष कहते हैं कि ऐसे कर्म भी नश्वर होते हैं और ऐसे कर्मो का फल भी नश्वर होता है। इसकी पुष्टि स्वयं वेदशास्त्र ही करते हैं।

इष्टापूर्तं मन्यमाना वरिष्ठंनान्यच्छ्रेयो वेदयन्ते प्रमूढाः।
नाकस्य पृष्ठे ते सुकृतेऽनुभूत्वेमं लोकं हीनतरं वा विशन्ति।।

भावार्थ यह है कि वेद और स्मृति आदि शास्त्रो में सांसारिक सुखो की प्राप्ति के जितने भी साधन बताये गये हैं उन्हीं को सर्वश्रेष्ठ कल्याण के साधन मानते हैं ऐसे लोग महामूर्ख  होते हैं। अतः वे अपने पुण्य कर्मो के फलस्वरूप स्वर्गलोकतक के सुखों को भोगकर पुण्य समाप्त होने पर पुनः इस मनुष्य लोक में अथवा इससे भी नीची कुत्ता, गधा, बिल्ली, सुअर,साँप बिच्छू आदि योनियो में या रौरवादि घोर नरको में चले जाते हैं।

जो कर्म वेदशास्त्रो के नियम का पालन करते हुए तो किये जाते हैं परन्तु परमात्मा को समर्पित करके नहीं किये जाते हैं तो ऐसे कर्म भी नश्वर है और इन कर्मो का फल भी नश्वर है,इसकी पुष्टि भी वेदशास्त्रो से की गई। रामायण भी इसकी पुष्टि करती है :-

सौ सुख करमु धरमु जरि जाहु।
जो न राम पद पंकज भाऊ  ।।

भावार्थ यह है कि ऐसे कर्म धर्म और उनसे मिलने वाला सुख आग में जल जायें जिन कर्म धर्म से भगवान के चरणों में अनुराग नहीं होता। कुल मिलाकर  ऐसे कर्म धर्म हमारे किसी काम के नहीं है।

(2)- विकर्म - विकर्म ऐसे कर्म है कि जो न तो वेदशास्त्रो के नियम का पालन करते हुए किये है और न ही भगवान को समर्पित करके किये जाते हैं, ऐसे कर्मो के फल से विभिन्न नर्को की प्राप्ति होती है। ऐसे कर्मो के द्वारा जीव कीट पतंग योनियो में जाता है।

अब तक कर्म मार्ग में कर्म धर्म व विकर्म पर बहुत ही संक्षेप में चर्चा  की गई अब बिन्दू संख्या 3 अकर्म  पर चर्चा  करते हैं।

(3)- अकर्म :   वास्तव में अकर्म से ही ईश्वर प्राप्ति होती है। कर्म का मतलब है करना और अकर्म का मतलब है कुछ नहीं करना । अब आपके मन में यह प्रश्न अवश्य ही उठ रहा होगा कि जब कुछ करना ही नहीं है तो परमात्मा की प्राप्ति कैसे हो जायेगी  ?  हाँ यह बात 100 प्रतिशत सत्य है कि अकर्म से ही ईश्वर प्राप्ति होगी। यह एक गोपनीय रहस्य है। हम कर्म करते हैं तो उन कर्मो का फल मिलता है

अच्छा कर्म करेंगे तो अच्छा फल मिलेगा और पाप कर्म करेंगे तो बुरा फल मिलेगा और दोनों तरह के कर्मो का फल भोगने के लिए जन्म तो लेना ही पड़ेगा। निष्कर्ष यह निकला कि चाहे बड़े से बड़ा पुण्य कर्म करो या बड़े से बड़ा पाप कर्म करो, जन्म-मृत्यु छुटकारा नहीं मिलता और यदि न तो अच्छे कर्म करो और न बुरे कर्म करो तो न अच्छा फल मिलेगा और न बुरा फल मिलेगा और जब हमारे जीवन के खाते में  किसी भी कर्म का फल होगा  ही नहीं तो कर्म फल भोगने के लिए जन्म ही नहीं लेना पड़ेगा और जब जन्म ही नहीं होगा तो मृत्यु तो होगी ही नहीं, हो गया न जन्म-मृत्यु से छुटकारा। लेकिन भगवत गीता तो कहती है कि -

न हि कशिचतक्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत।

भावार्थ यह है कि ब्रह्मांड में कोई भी व्यक्ति एक क्षण को भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता  कर्म करना मनुष्य की मजबूरी है।

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