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Sunday, April 7, 2019

परमात्मा भाग-6

अकर्म 

अकर्म कर्म क्या है?
भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को सर्वगुह्यतम रहस्य बताते हुए कहते हैं -

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्करु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन जिस मन के कारण तू युद्ध करने से डर रहा है वही अपना मन मुझे अर्पित कर दे फिर तू बिना किसी डर के निडर होकर युद्ध कर फिर तुझे युद्ध सम्बन्धी कर्म का फल ही नहीं मिलेगा। अब अर्जुन ने भगवान के कहने पर अपना मन, बुद्धि भगवान को समर्पित कर दिया उसके बाद अर्जुन ने युद्ध रूपी कर्म किया लेकिन नहीं किया क्योंकि अर्जुन के मन और बुद्धि में भगवान श्रीकृष्ण प्रवेश कर गये   अब युद्ध रूपी कर्म अर्जुन ने नहीं बल्कि भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं किया, इसी को अकर्म कर्म कहते हैं। अब अर्जुन को एक शंका फिर  हुई उसने भगवान से कहा प्रभु जो  मेरे सन्चित कर्म है वो कैसे समाप्त होंगें, फिर भगवान अर्जुन से कहते हैं कि -

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।

भगवान कहते हैं कि तू अपना मन बुध्दि मुझे अर्पण करके और समस्त धर्मो का परित्याग करके केवल एक ही धर्म  और वो यह कि केवल अनन्य रूप से मेरी शरण में आजा चिन्ता मत कर मैं पलभर में ही तेरे समस्त पाप पुण्य समाप्त कर दुंगा। इसके बाद भगवान अर्जुन से कहते हैं कि -

कच्चिदेतच्छुतं पार्थ त्वैयकाग्रेण चेतसा।
कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञज्य।।

भगवान कहते हैं कि हे अर्जुन तूने मेरी बात को एकाग्रता से सुना उसके बाद अब तूने क्या करना है क्या तेरा अज्ञान से उत्पन्न मोह नष्ट हो गया, तब अर्जुन कहता है कि हाँ प्रभु आपकी कृपा से मेरा अज्ञान से उत्पन्न मोह समाप्त हो गया अब निडर होकर युद्ध करुंगा।

अब आगे भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि -

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं  निवेशय।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊध्र्वं न संशयः।।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन अपने मन बुध्दि को मुझमें प्रविष्ट कर निसन्देह इसके बाद तू मुझमें ही निवास करेगा । भागवत महापुराण से भी प्रमाणित किया जा रहा है। भगवान श्रीकृष्ण उद्धव से कहते हैं कि -

कुर्यात् सर्वाणि कर्माणि मदर्थं शनकैः स्मरन्।
मय्यर्पितमनश्चित्तो मद्धर्मात्ममनोरतिः।।

भगवान कहते हैं कि हे उद्धवजी मेरे भक्त को चाहिए कि अपने सारे कर्म मेरे लिए ही करे और उन कर्मो को करते समय धीरे - धीरे मेरे स्मरण का अभ्यास  बढ़ाये। कुछ ही दिनो में उसके मन और चित्त मुझमें समर्पित हो जायेगें। उसके मन और आत्मा मेरे ही धर्मो में रम जायेगें। आगे इसको वेदो से भी प्रमाणित किया जा रहा है -

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत  समाः।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।

ये वेदमन्त्र कहरहा है कि समस्त जगत के एकमात्र कर्ता, धर्ता, हर्ता, सर्वशक्तिमान परमेश्वर का स्मरण करते हुए, सब कुछ उन्हीं का समझते हुए उन्हीं की पूजा के लिए शास्त्रनियत कर्तव्यकर्मो का आचरण करते हुए ही 100 वर्ष तक जीने की इच्छा करो -- इस प्रकार अपने पूरे जीवन को परमेश्वरके प्रति समर्पण करदो।

इस प्रकार बहुत ही संक्षेप में अकर्म पर प्रकाश डाला गया।

(4) कर्मसन्यास - कर्मसन्यास मोक्ष की अन्तिम अवस्था है। इस अवस्था में जीवात्मा समस्त संसार प्रपंच से उपर उठ जाता है, वह सभी रिश्ते नातों से विरक्त होकर आत्मस्वरूप में ही रमण करता है।



            

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