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Tuesday, April 9, 2019

परमात्मा भाग-9

ईश्वर ही अपनी कृपा से जीव को त्रिगुणात्मक माया प्रकृति से बन्धन मुक्त कर सकते हैं अन्य किसी दूसरी शक्ति में सामर्थ्य नहीं है और न  ही जीव अपने बल पर साधना करके इस माया से बन्धनमुक्त हो सकता है इसके अतिरिक्त किसी सन्त महात्मा में भी ऐसी सामर्थ्य नहीं है जो इस असम्भव कार्य को सम्भव कर सके। फिर ऐसा क्यों कहते हैं कि ईश्वर प्राप्ति में गुरु का होना अनिवार्य है, वो इस लिये कहते हैं कि वास्तविक मायातीत महापुरुष  इस प्रक्रिया से गुजरे हुए होते हैं उन्हें इस मार्ग का पूर्ण ज्ञान होता है और उसी तरह का ज्ञान वे हमें समझाते हैं। अब शिष्य के ऊपर निर्भर है कि वो उस मार्ग कितना चलता है यदि साधक गुरु के बताये मार्ग पर नहीं चलेगा तो ऐसी दशा में स्वयं जगदगुरु ब्रह्मा जी भी उस शिष्य का कुछ नहीं करसकते। केवल ईश्वर की कृपा से ही ईश्वर को जान सकते हैं, प्राप्त करसकते हैं, इस सम्बन्ध में  रामचरित्र मानस में तुलसीदास जी ने लिखा है -

राम कृपा बिनु सुनु खगराई।
जानि न जाय राम प्रभुताई।।

अब तो केवल परमात्मा की कृपा कैसे प्राप्त हो इस सम्बन्ध में ही बिचार करना है। ईश्वर कृपा प्राप्ति हेतु जीवो ने अलग अलग प्रकार के तरीके अपनाये परन्तु कामयाबी नहीं  मिली क्योंकि वे सभी तरीके सटीक नहीं थे। हमने सबकुछ किया परन्तु भगवान से प्यार नहीं किया, प्रेम से ही भगवान भक्त के वश में होजाते हैं । रामचरित्र मानस में लिखा है कि -

रामहु केवल प्रेम प्यारा।
जानलेहु जो जाननि हारा।।

 प्रेम भक्ति के सामने ब्रह्मज्ञान बहुत पीछे है।रामचरित्र मानस में एक प्रसंग आता है जब विश्वामित्र जी के साथ राम और लक्ष्मण धनुषयज्ञ देखने राजा जनक के यहां जाते हैं और जब राजा जनक जो बहुत बड़े ब्रह्मज्ञानी थे उन्हें विदेह कहा जाता है, जैसे ही जनक ने राम लक्ष्मण को देखा तत्काल ब्रह्मज्ञान गायब हो गया और प्रेमानन्द उत्पन्न होगया और तत्काल जनक विश्वामित्र जी से कहने लगे -

इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा।
बरबस ब्रह्म सुखहि मन त्यागा।।

एक पशु होता है जिसे हम गधा कहते हैं उस पर भी परमात्मा यदि अपनी कृपा करदे तो वह गधा भी परमात्मा को जान सकता है, प्राप्त कर सकता है। अब ईश्वर की कृपा कैसे प्राप्त हो इस पर कुछ विचार करते हैं। परमात्मा की कृपा प्राप्ति हेतु परमात्मा की एक शर्त है जो हमे पूरी करनी होगी और वह शर्त है परमात्मा की शरणागति। यदि जीवात्मा किसी तरह से अपने मन और बुध्दि का समर्पण परमात्मा को करदे तब लक्ष्य पूरा होने में देर नहीं है। भगवत गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं  कि -

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुध्दिं निवेशय।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्धवं न संशयः।।

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि है अर्जुन अपने मन और बुध्दि  को  मुझमें ही प्रविष्ट करदे, इसमें कोई सन्देह नहीं है कि उसके बाद तू मुझमें ही निवास करेगा। फिर भगवान कहते हैं कि -

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मदव्यपाश्रयः।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्।।

भगवान कहते हैं कि मेरे शरणागत होने वाला मेरा भक्त सदा सब कर्म करता हुआ भी मेरी  कृपा से शाश्वत अविनाशी पद को अर्थात मेरे परमधाम को प्राप्त हो जाता है। 

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