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Tuesday, April 9, 2019

परमात्मा भाग-10

भगवत गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं -

मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्षयसि।।

भावार्थ है कि भगवान कहते हैं कि है अर्जुन तू पूर्णरूप से अपना मन मुझमें लगा दे तब तू मेरी कृपा से सम्पूर्ण विघ्नों से आसानी से तर जायेगा और यदि तू अहंकार के कारण मेरी बात नहीं सुनेगा तो निश्चित रूप से तेरा पतन हो जायेगा।

आगे  फिर भगवान शरणागति की  ही बात कहते हैं -

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्सयसि  शाश्वतम्।।

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन तू सर्वभाव से मेरी ही शरणागति को प्राप्त हो जा ऐसा करने से मेरी कृपा से अविनाशी परमपद अर्थात मेरे लोक परमधाम को प्राप्त कर लेगा जहां से फिर कोई लोटकर वापस नहीं आता।

जीवात्मा के द्वारा पूर्णरूप से परमात्मा के शरणागत होने पर ही   परमात्मा जीवात्मा पर कृपा करते हैं।  परमात्मा का एक रूप न्यायाधीश  है और एक रूप कृपालु है। न्यायाधीश के रूप में जीवात्मा के द्वारा किये गये कर्मो के विधान का   फैसला करते हैं और तद्नुसार कर्मो का फल देते हैं। कृपालु के रूप में कर्मविधान ही समाप्त हो जाता है, जिस जीवात्मा पर प्रभु कृपा करते हैं उस जीवात्मा पर उसके द्वारा किये गये कर्म व कर्मफल का कोई असर नहीं होता  उसके कर्म अकर्म में बदल जाते हैं। भगवत गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि -

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति।।

भावार्थ यह है कि भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन जो मनुष्य पूर्णरूप से मेरी शरण हो जाता है उस पर मैं कृपा करता हूँ और वो मेरी कृपा के फलस्वरूप तत्काल उसी क्षण मेरा भक्त ( धर्मात्मा) हो जाता है और तत्काल निरन्तर रहने वाली सुख शान्ति को प्राप्त हो जाता है। हे कुन्तीनन्दन अर्जुन निडर होकर  यह घोषणा कर दो कि मेरे शरणागत भक्त का पतन नहीं हो सकता क्योंकि वो पूर्णरूप से मेरी शरण में है। 

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