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Monday, April 8, 2019

परमात्मा भाग-7

भक्ति योग


अब तक कर्म मार्ग और ज्ञान मार्ग पर बहुत ही संक्षेप में चर्चा की गई अब आगे भक्ति योग पर संक्षेप में चर्चा करते हैं।

वैसे तो ज्ञान और भक्ति  दोनों ही मार्ग से जीव कल्याण होता है यह बिल्कुल सच्ची बात है,   फिर भी ज्ञान की अपेक्षा भक्ति की अधिक महिमा है। ज्ञान से तो अखण्ड रस की प्राप्ति होती है परन्तु भक्ति से  अनन्त रस की प्राप्ति होती है जो कि प्रतिक्षण वर्धमान है। जैसे  उदाहरण स्वरूप संसार में किसी वस्तु का ज्ञान हो जाता है तो उस वस्तु के प्रति जो अनजानापन था, जो अज्ञानता थी वह मिट जाता  है । अज्ञान मिट जाने से सुख का आभास होता है सभी प्रकार के भय समाप्त हो जाते हैं परन्तु भक्ति तो ज्ञान से कहीं अधिक विलक्षण है। उदाहरणार्थ जैसे अज्ञानतावश एक अज्ञानी मनुष्य को नोटो की गड्डी मिलती है और वो ये नहीं समझ पा रहा था कि ये क्या है उसने कभी रुपए देखे ही नहीं थे, अब वो परेशान कि ये क्या है तब किसी ज्ञानी मनुष्य ने उसे समझाया कि ये रूपयो अथवा नोटो की गड्डी है अब उस अज्ञानी का जो उस गड्डी के प्रति जो अज्ञान, अनजानापन था वह मिट गया उसने जान लिया कि ये रुपये हैं परन्तु उसे ये रुपये है यह ज्ञान हो जाने पर भी उन रुपयो को प्राप्त करने का लोभ पैदा नहीं हुआ यदि उसे ये पता चल जाता कि इन रुपयो के बदले में संसार की बहुत सारी अच्छी - अच्छी वस्तुओं की प्राप्ति होती है तो तत्काल उसे उन रुपयो के प्रति लोभ पैदा हो जाता और ये लालच प्रतिदिन बढ़ता ही जाता। वस्तु के आकर्षण में जो रस है वह रस वस्तु के ज्ञान में नहीं है। ज्ञान का रस तो स्वयं जीव ही लेता है परन्तु भक्ति का रस प्रेम का रस परमात्मा स्वयं लेते हैं, भगवान ज्ञान के नहीं प्रेम के आधीन हो जाते हैं, इस लिए भक्ति ज्ञान से कहीं अधिक विलक्षण है।


भक्ति मार्ग 


भक्ति मार्ग पर संक्षेप में चर्चा की गई, भक्ति मार्ग ज्ञान मार्ग से सुलभ है ।भगवत प्राप्ति जितनी भक्ति से सुलभ है उतनी ज्ञान से, योग से, तप से नहीं है । भक्ति मार्ग पर चलने से भक्त का भगवान योगक्षेम वहन करते हैं।

भगवान अर्जुन से कहते हैं -

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्ताननां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।

भगवान कहते हैं कि जो मेरे अनन्य भक्त मेरा ही चिन्तन करते हुए भलिभाँति मेरी उपासना करते हैं , ऐसे जो निरन्तर मुझमे लगे हुए मेरे भक्त हैं, मैं उनका योगक्षेम वहन करता हूँ अर्थात मैं हर समय अपने भक्त के साथ रहकर उसकी रक्षा करता हूँ। अप्राप्त की प्राप्ति करता हूँ और जो मेरे भक्त को प्राप्त है उसकी रक्षा करता हूँ। भगवान ने ऐसा केवल अपने भक्त के लिए ही कहा है   ज्ञानी तथा तपस्वी एवं योगी के लिए नहीं कहा ।

भक्ति मार्ग ज्ञान मार्ग से इस लिए सुलभ है क्योंकि ज्ञान मार्ग में बड़े कठिन नियम है जैसे -

1- विवेक,
2- वैराग्य,
3- शमादि षटसम्पत्ति - शम, दम, श्रद्धा, उपरति, तितिक्षा, और समाधान
4- मुमुक्षता,
5- श्रवण,
6- मनन,
7- निदिध्यासन, और
8- तत्वपदार्थसंशोधन 

ब्रह्मज्ञान की  दीक्षा लेने से पहले इन आठो नियमो का पालन करना अनिवार्य है। यही ब्रह्मज्ञान की प्रचलित प्रक्रिया है ,इस प्रक्रिया को पूरा किये बिना ब्रह्मज्ञान के मार्ग में दाखिला नहीं हो सकता । कुछ धन के लोभी बाबा अपने शिष्यो को ये बात नहीं बताते उनका कहना है कि मन कहीं भी जाय तुम तो सिर्फ आँखे बन्द करके बैठे रहो और भोले भाले शिष्य उनकी बातों में आकर बर्बाद हो जाते हैं। यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि प्राकृत मन द्वारा की गई साधना भी प्राकृत ही है। रामचरित्र मानस में तुलसी दास जी लिखते हैं कि -

गो गोचर जहँ लगि मन जाई।
सो सब माया जानेहु भाई।।

कुछ महात्मा ऐसा भी कहते हैं कि जैसा कहा है वैसा ही करो हम गारन्टी लेते हैं कि आपको हम परमधाम पहुँचा देंगे । यह बात पूरी तरह मन में बसा लो कि चाहें ज्ञान मार्ग हो भक्ति मार्ग हो या कर्म मार्ग हो ठीक ठीक तरह से साधना तो करनी ही पड़ेगी । बिना साधना किए कोई महात्मा या स्वयं भगवान भी हमारा उद्धार नहीं कर सकते।

 

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