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Sunday, December 22, 2019

सरकार और प्रदर्शन

सरकार यूनिफॉर्म सिविल कोड भी CAB के साथ पास कर देती तो एक बार के धरने प्रदर्शन में मामला सेटल हो जाता, पर सरकार की नीयत ठीक नहीं है, 

सरकार UCC बाद में लाएगी ताकि प्रदर्शन कारियों को दोबारा ठोका जा सके, उसके बाद सरकार जनसंख्या नियंत्रण पर बिल लाएगी ताकि प्रदर्शन कारियों को तीसरी बार ठोका जा सके।

सरकार ऐसे ही एक एक कर बिल लाती रहेगी और प्रदर्शन कारियों को ठुकवाती रहेगी। मतलब सपष्ट है कि सरकार प्रदर्शन कारियों को हमेशा पुलिस से ठुकवाना चाहती है। 

यदि सरकार की नीयत ठीक होती तो सारे बिल एक दिन में पास कराकर केवल एक बार की ठुकाई  में काम चल जाता। अलग अलग बिल पास कराकर सरकार चाहती है कि प्रदर्शन कारी हमेशा ठुकाई उसके बाद सिकाई कराते रहे।

प्रदर्शन करने वाले तो बेचारे गरीब देशभक्त हैं, बसों ओर सरकारी संपत्ति को जलाकर ठंड से अपना बचाव कर रहे हैं।

प्रदर्शन करने पर घायल होने या मृत्यु होने पर वोट बैंक के लालच में राजनीतिक लोगों द्वारा पीड़ित प्रदर्शन कारी को मोटा पैसा भी मिलता है ओर सरकारी नोकरी भी मिल जाती है जैसा अभी दिल्ली में हुआ।

प्रदर्शन करना एक अच्छा व्यवसाय बन सकता है लेकिन सरकार इस व्यवसाय को प्रोत्साहित ही नहीं कर रही है।

हिंसक प्रदर्शन के कारण ही समाचार TV चैनल चल पा रहे हैं, वरना पब्लिक तो कबका समाचार TV चैनल देखना छोड़ चुकी है।

हिंसक प्रदर्शन के कारण, पुलिस, डॉक्टर, वकील, जज और राजनेताओं की रोजी रोटी चल रही है।

सरकार को चाहिए कि हिंसक प्रदर्शन कारियों को प्रदर्शन के स्थान पर पर्याप्त मात्रा में ईंट, पत्थर और पेट्रोल बगैरा उपलब्ध कराए। सरकार को 30 वर्ष तक के हिंशक प्रदर्शन करी स्त्री पुरुषों को नाबालिग की श्रेणी में रखने हेतु भी एक बिल पास करे।

रNDTV चैनल को प्रदर्शन कारियों का ऑफिसियल चैनल घोषित किया जाए।

Thursday, November 14, 2019

प्रदूषण

प्रदूषण प्रदूषण हल्ला करने का सबको अधिकार है, परन्तु प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए सरकार या नागरिक कोई जिम्मेदारी भरा कदम उठाने के लिए तैयार नहीं हैं। अब तो किसानों की पुराली जले भी कई दिन बीत चुके हैं फिर भी प्रदूषण अपने चरम पर है। इसका मतलब साफ है कि प्रदूषण के लिए जिम्मेदार किस नहीं बल्कि हम और आप हैं। 
सरकार तो प्रदूषण कम करने हेतु कोई कार्यवाही करेगी नहीं क्योंकि उसने NGT का गठन कर अपनी जिम्मेदारी निभा दी। NGT और सरकारी कार्यालयों में सरकार ने एयर प्यूरीफायर लगवा दिए जिससे कि उनके अधिकारी प्रदूषण की मार से बच सकें परन्तु सरकार ने यह सुविधा अपने कर्मचारियों को नहीं दी तो आम जनता को तो छोड़ ही दीजिये।
अब कुछ सुझाव प्रदूषण से बचाव और प्रदूषण को कम करने के जिन पर आम जनता अमल कर लाभ उठा सकती है:

प्रदूषण की मार से बीमार होने की बजाए अपने ऑफिस से छुट्टी लेकर घर पर आराम करें तब तक जब तक प्रदूषण का स्तर कम करने लायक ना हो जाये।

कार या मोटरसाईकल चाहे वह जिस भी ईंधन से चलती हो का प्रयोग बंद कर दें।

5-7 किलोमीटर की यात्रा पैदल या साईकल से करें।

लम्बी दूरी की यात्रा के लिए बस, मेट्रो या रेल की सेवाएं लें।

आफिस के खिड़की दरवाजे खुले रखें औऱ AC का प्रयोग बिल्कुल ना करें।

अगर आफिस की दूरी घर से 5 किलोमीटर के दायरे में है तो आफिस पैदल जाएं, आएं।

सभी प्रकार के निर्माण कार्य बंद कर दें।

अगर आपके आसपास कोई प्रदूषण फैलाने वाला उद्योग है तो उन्हें कुछ दिन के लिए उस उद्योग को बंद करने के लिए कहें।

बीमारी से तडफ़ तडफ़ कर मरने से अच्छा है स्वस्थ जीवन जियो,

अब मर्जी आपकी है
 ज़्यादा विकास विकास चिल्लाओगे तो प्रदूषण प्रदूषण भी चिल्लाने के लिए तैयार रहो।

Sunday, July 14, 2019

परमात्मा भाग 20

कितने ही बाहरी आडम्बर करो कोई लाभ नहीं है कितने ही कर्म धर्म के चक्कर में पड़ो सब बेकार है क्योंकि ऐसे साधनो से आत्मकल्याण होता ही नहीं है। कर्म अच्छा करो या बुरा करो दोनों प्रकार के कर्मो का फल भोगने बार बार इस मृत्यु लोक में आना ही पड़ेगा। कुछ भोले भाले लोग यह समझते हैं कि गुरु महाराज हमारा आत्मकल्याण कर देगें ये बात भी गलत है क्योंकि वास्तविक गुरु केवल हमें आत्मकल्याण का मार्ग समझा सकते हैं साधना करने का तरीका समझा सकते हैं इसके अलावा कुछ करते ही नहीं है यदि हम सतगुरु के बताये मार्ग पर चलेगें उनके बताये अनुसार साधना करेगें तब आत्मकल्याण निश्चित है। जो साधना हमे गुरु ने बताई है  वो साधना हमें ही करनी है हमारे बदले की साधना न तो गुरु करेंगें और न ही भगवान करेगें। तब ही तो भगवान ने कहा है कि मैं तो केवल उसी को मिलता हूँ जो मेरे बिना रह नहीं सकता।

यह बात स्वर्ण अक्षरो से लिखलो कि भक्ति के द्वारा परमात्मा की शरण ग्रहण करने पर ही आत्मकल्याण निश्चित है क्योंकि त्रिगुणात्मक माया केवल ईश्वर कृपा से ही जायेगी और कोई अन्य तरीका नहीं है और बिना माया निवृत्ति के ईश्वर प्राप्ति  सम्भव ही नहीं है।

माया निवृत्ति ईश्वर कृपा पर ही निर्भर है क्योंकि कोई भी साधन जीव को माया से बन्धनमुक्त नहीं कर सकता। भगवत गीता में इस बात का प्रमाण है-

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।

भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि यह त्रिगुणात्मक देवी माया दुरत्यय है इस माया से पार पाना असम्भव है जो जीवात्मा मेरी शरण में आता है तो उस जीवात्मा को मैं अपनी कृपा से  त्रिगुणात्मक माया से सदा के लिए  बन्धनमुक्त कर देता हूँ। ईश्वर प्राप्ति में ईश्वर कृपा अनिवार्य है। ये माया भगवान की शक्ति है और भगवान की शक्ति होने के फलस्वरूप भगवान के बराबर ही शक्तिशाली है इसी वजह से भगवान की कृपा से ही जीव इस माया से पार हो सकता है।

परमात्मा भाग 19

न रोधयति मां योगो न सांख्यं धर्म एव च।
न स्वाध्यायस्तपस्तयागो नेष्टापूर्त न दक्षिणा।।

व्रतानि यज्ञश्छन्दांसि तीर्थानि नियमा यमाः।
यथावरुन्धे सत्संगः सर्वसंगापहो हि माम्।।

भगवान श्री कृष्ण उद्धव से कहते हैं कि हे प्रिय उद्धव संसार में जितनी आसक्तियाँ हैं, उन्हें सत्संग नष्ट कर देता है। यही करण है कि सत्संग जिस प्रकार मुझे वश में कर लेता है वैसा साधन न तो योग है ,न सांख्य , न धर्मपालन और न स्वध्याय ,तपस्या, त्याग, इष्टापूर्त और दक्षिणा से भी मैं वैसा प्रसन्न नहीं होता। कहाँ तक कहूँ - व्रत, यज्ञ, वेद, तीर्थ और यम नियम भी  सत्संग के समान मुझे वश में नहीं करसकते। नारद जी अपने 19 वे  भक्तिसूत्र में लिखते है कि -

"नारदस्तु  तदार्पिताखिलाचारिता तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति। "

नारद जी कहते हैं कि  अपने समस्त कर्मो को भगवान को अर्पण करना और भगवान का  थोड़ा सा भी विस्मरण होने पर परम व्याकुल होना ही भक्ति है।

सबसे सुलभ साधन भक्ति योग है। नारद जी अपने 48 वें भक्ति सूत्र में कहते हैं कि -

" अन्यस्मात सौलभ्यं भक्तौ "

जितने साधन हैं उन सब की अपेक्षा भक्ति ही सुलभ है। भक्ति की प्राप्ति में न तो विद्या की आवश्यकता है न धन की आवश्यकता है और न उच्चवर्णाश्रम की, न श्रेष्ठ कुल की आवश्यकता है, न कठोर तप की आवश्यकता है, न वेदाध्यन की आवश्यकता है। केवल सरल भाव से भगवान की अपार कृपा पर विश्वास करके उनका सतत प्रेमभावसे स्मरण करने की आवश्यकता है।

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूस्वाम।।

ये वेद मन्त्र कह रहा है कि परमात्मा न तो उसको मिलते हैं जो शास्त्रो को पढ़ सुनकर लच्छेदार भाषा में ईश्वर का नाना प्रकार से वर्णन करके प्रवचन करते हैं, और न उनको ही मिलते हैं जो अपनी बुद्धि के अभिमान में  पागल होकर तर्क के द्वारा समझाने की चेष्टा करते हैं और न उनको ही मिलते हैं जो बहुत कुछ सुनते सुनाते रहते हैं, कमाल की  बात है तो प्रभु आप ही बतायें कि आप किसको मिलते हैं तो परमात्मा कहते हैं कि मैं केवल उसी को मिलता हूँ जिसको मैं स्वीकार कर लेता हूँ, जिसको मैं अपना मानकर अपना लेता हूँ और मैं उसी को स्वीकार करता हूँ, अपना मानता हूँ जो मेरे बिना रह नहीं सकता। जो मेरी कृपा की प्रतीक्षा करता है। ऐसे कृपा निर्भर  भक्त पर मैं सदैव कृपा करता हूँ और योगमाया का पर्दा हटाकर उस भक्त के सामने अपने सच्चिदानन्दघन स्वरूप में प्रकट हो जाता हूँ।

परमात्मा भाग 18

भक्त जब अपना संसार व शरीर तक भगवान को समर्पण कर चुका होता है तब उसका संसार रहे या चला जाये उस पर कोई फर्क नहीं पड़ता बल्कि उस भक्त के लिए यह संसार ही भगवान का स्वरूप हो जाता है। ऐसे भक्त के लिए चलना, उठना, बैठना, स्नान करना, भोजन करना, व्यापार आदि समस्त कार्य  भजन साधना हो जाते हैं वो जो भी कार्य करता है वो भगवान की भक्ति है। भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं  -

अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः।

हे अर्जुन जो मनुष्य अनन्य मन से मेरा नित्य निरन्तर चिन्तन करता है ऐसे भक्त के लिए मुझे प्राप्त करना अत्यन्त सुलभ है। भक्त को चाहिए कि मन से निरन्तर परमात्मा का चिन्तन करे और शरीर से परमात्मा की सेवा करे। जितना हो सके अधिक से अधिक वाणी से ईश्वर के गुण लीला लोगों को सुनाओ और कानों से ईश्वर की चर्चा सुनो, आँखों से भगवत सम्बन्धी ग्रन्थ पढ़ो उनके लीला धाम के दर्शन करो। गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं कि -

जिन्ह हरिकथा सुनी नहिं काना।
श्रवन रंध्र अहि भवन समाना।।

जो नहिं करइ राम गुन गाना।
जीह सो दादुर जीह समाना।।
                 
ईश्वरभक्त का अपनी इंद्रियाँ, मन, बुद्धि यहांँ तक कि अपने शरीर पर भी कोई अधिकार नहीं रहता फिर परिवार और संसार पर तो उसका अधिकार हो ही कैसे सकता है, आत्मा के अलावा उसके पास अपना कुछ भी नहीं है  और यदि कुछ है तो उस कुछ के कारण भक्ति में बड़ी बाधा उत्पन्न होगी, वास्तव में आत्मा का सम्बन्ध संसार तथा सांसारिक वस्तुओं से कोई सम्बन्ध होता ही नहीं, वो तो जबरदस्ती सम्बन्ध बनाकर जन्म-मरण का दुःख भोगना पड़ रहा है। आत्मा का सम्बन्ध केवल सिर्फ केवल परमात्मा से ही है इसलिए परमात्मा को पाकर आत्मा सदा के लिए अनन्दमय हो जाता है।सांसारिक वस्तुओं से आत्मा की तृप्ति नहीं हो सकती यदि किसी मनुष्य को ब्रह्माण्ड के बराबर सम्पत्ति मिल जाये तो वो पागल तो अवश्य हो जायेगा परन्तु शान्त नहीं हो सकता। भागवत महापुराण में भगवान कहते हैं कि -

भक्तिं लब्धवतः साधोः किमन्यदवशिष्यते।
मय्यनन्तगुणे ब्रह्मण्यानन्दानुभवात्मनि।।

भगवान कहते हैं कि मुझ  अनन्त गुण सम्पन्न सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में भक्ति हो जाने पर फिर साधु महात्मा पुरूष को ओर कोन सी वस्तु प्राप्त  करनी बाकी रह जाती है? वह तो सदा के लिए कृतार्थ हो जाता है।
                 

परमात्मा भाग 17

रामचरित् मानस में तुलसीदास जी लिखते हैं -

भक्ति सुतन्त्र सकल सुख खानी।
बिनु सत्संग न पावहि परानी।।

भक्ति  में कोई भेद नहीं है, कोई नियम कानून नहीं है, भक्ति की प्राप्ति में न तो विद्या की आवश्यकता है, न धन की आवश्यकता है और न उच्चवर्णाश्रम, न वेदाध्यन की आवश्यकता है, न कठोर तप की आवश्यकता है, केवल सरल भाव से भगवान की अपार कृपा पर विश्वास करके उनका सतत प्रेमभाव से स्मरण करने की आवश्यकता है। भगवान की कृपा  हर वक्त प्रत्येक जीव पर हमेशा रहती है जिस प्राणी को इस पर विश्वास नहीं है वही ईश्वर कृपा से वंचित रह जाता है। श्री कृष्ण भगवान कहते हैं कि -

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।।

भगवान कहते हैं कि जो  सम्पूर्ण लोकों के ईश्वरों के भी ईश्वर हैं, वे बिना कारण स्वभाविक ही प्राणीमात्र का हित करने वाले हैं इस प्रकार जान व मान लेने पर प्राणी को परमशान्ति प्राप्त हो जाती है।

"लोकहानौ चिन्ता न कार्या निवेदितात्मलोकवेदत्वात् "

ईश्वर भक्त लोकहानि की चिन्ता नहीं करता क्योंकि ईश्वर भक्त अपने आपको और लौकिक, वैदिक सभी प्रकार के कर्मो को भगवान को अर्पण कर चुका है। भक्त के पास चिन्ता करने के लिए कुछ भी शेष नहीं बचा रहता सब कुछ परमात्मा को  अर्पण कर दिया। स्त्री, पुत्र, धन, जन, मान आदि पदार्थ रहें या चले  जाएं उस भक्त को इनकी कोई परवाह नहीं है, क्योंकि वह तो इन सब को पहले ही भगवान को समर्पण करके सर्वथा अकिंचन हो चुका है, फिर भक्त इनकी चिन्ता क्यों करे। अब तो भक्त के पास चिन्ता करने के लिए परमात्मा के अलावा कुछ भी नहीं है,  भक्त रात  दिन परमात्मा के बारे में ही चिन्तन करता है। भक्त को सांसारिक मोहमाया छोड़ने के लिए कुछ नहीं करना होता वो तो अपने आप ही सब छूट जाता है।

Saturday, June 22, 2019

पत्नी बार बार माँ पर आरोप लगाए जा रही थी और पति बार बार पत्नी को हद में रहने का निवेदन कर रहा था पर पत्नी चुप ही नही हो रही थी और जोर जोर से चीख चीख कर कह रही थी कि अंगूठी मेज पर से हो न हो मां जी ने ही उठाई है क्योंकि मेरे ओर तुम्हारे अलावा इस कमरे में कोई नहीं आया और अंगूठी मेने मेज पर ही धरि थी। 







बात जब पति की बर्दाश्त के बाहर हो गई 
तो उसने पत्नी के गाल पर एक जोरदार 
तमाचा दे मारा अभी तीन महीने पहले ही 
तो शादी हुई थी।

पत्नी से तमाचा सहन नही हुआ। वह घर 
छोड़कर जाने लगी और जाते जाते 
पति से एक सवाल पूछा कि तुमको 
अपनी मां पर इतना विश्वास क्यूं है..??

तब पति ने जो जवाब दिया उस जवाब 

को सुनकर दरवाजे के पीछे खड़ी मां 
ने सुना तो उसका मन भर आया पति 
ने पत्नी को बताया कि "जब वह 
छोटा था तब उसके पिताजी की मृत्यु
हो गई, मां मोहल्ले के घरों मे झाडू 
पोछा लगाकर जो कमा पाती थी 
उससे एक वक्त का खाना आता 
था मां एक थाली में मुझे 
परोस देती थी और खाली 
डिब्बे को ढककर रख देती 
थी और कहती थी मेरी 
रोटियां इस डिब्बे में है 
बेटा तू खा ले मैं भी 
हमेशा आधी रोटी 
खाकर कह देता था 
कि मां मेरा पेट भर 
गया है मुझे और 
नही खाना है।

मां ने मुझे 
मेरी झूठी 
आधी रोटी खाकर 
मुझे पाला पोसा और 
बड़ा किया है आज मैं दो 
रोटी कमाने लायक हो गया 
हूं लेकिन यह कैसे भूल सकता 
हूं कि मां ने उम्र के उस पड़ाव 
पर अपनी इच्छाओं को मारा है, 
वह मां आज उम्र के इस पड़ाव 
पर किसी अंगूठी की भूखी होगी.... 
यह मैं सोच भी नही सकता।

तुम तो तीन महीने से मेरे साथ हो 
मैंने तो मां की तपस्या को पिछले 
पच्चीस वर्षों से देखा है...

Thursday, June 20, 2019

परमात्मा भाग-16

 ईश्वर प्राप्ति हेतु शरणागति ही वो ब्रह्मास्त्र है जिसके बिना जीव ईश्वर प्राप्ति का अपना लक्ष्य नहीं पा सकता है। हमें भगवान की कथा उनकी लीलायें पढ़नी हैं, सुननी हैं, सुनानी है।  जीव या तो भगवान की शरण में जा सकता है या फिर त्रिगुणात्मक माया प्रकृति की शरण ग्रहण करनी होगी दोनों की शरणागति एक साथ नहीं हो सकती। वर्तमान में हम 100 प्रतिशत त्रिगुणात्मक माया प्रकृति की ही शरण ग्रहण किए हुए हैं । अब हमें इस त्रिगुणात्मक माया प्रकृति की शरण छोड़कर परमात्मा की शरण में जाना है इसमें सर्वप्रथम हमें अपने आप को जानने का प्रयास करना है क्योंकि जब तक हम इस स्थूल शरीर को ही अपना स्वरूप मानते रहेगें तब तक परमात्मा की ओर चलना असम्भव है। हम अपने आप को जब तक यह मानते रहेंगे कि यह भौतिक शरीर ही हमारा स्वरूप है, तब तक शरीर और संसार की कामना उत्पन्न होती रहेगीं और ये एक ऐसा रोग है जिसका इलाज केवल परमात्मा के पास ही है, संसार में इसका इलाज कहीं भी नहीं है, एक कामना पूर्ण होते ही दूसरी कामना तत्काल उत्पन्न हो जायगी इसी को माया कहते हैं, जीवात्मा अनादिकाल से इसी मायाजाल में फंसा हुआ है। अब इन कामनाऔ को छोड़ना होगा।

" बहुत तड़फाया है इन कामनाओं  ने हमको अब इन कामनाऔ को तड़फता छोड़ दो " 

हम जिसके बारे में अधिक सोचते हैं उसी से  हमारा लगाव होना प्रारम्भ होजाता है, संसार में भी ऐसा ही होता है।  भगवान श्री राम ने कहा है कि -

मम गुन गावत पुलक शरीरा।  गद गद गिरा नैन बहे नीरा।।

भगवान कहते हैं कि मेरे गुण गाते समय भक्त का हृदय रुंध जाये, वाणी गद गद हो जाय और नेत्रो से अश्रुधारा बह निकले वही भक्त मुझे प्रिय है। भगवान कहते हैं कि-

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काड्ंक्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान यः स मे प्रियः।।

भगवान कहते हैं, जो न तो कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभाशुभ सबका त्यागी है वही मेरा भक्त मुझे प्रिय है।

           
             

Monday, April 15, 2019

परमात्मा भाग-15

 ईश्वर प्राप्ति हेतु शरणागति ही वो ब्रह्मास्त्र है जिसके बिना जीव ईश्वर प्राप्ति का अपना लक्ष्य नहीं पा सकता है। मानव को भगवान की कथा उनकी लीलायें पढ़नी हैं, सुननी हैं, सुनानी है।  जीव या तो भगवान की शरण में जा सकता है या फिर त्रिगुणात्मक माया प्रकृति की शरण ग्रहण करनी होगी दोनों की शरणागति एक साथ नहीं हो सकती। वर्तमान में हम 100 प्रतिशत त्रिगुणात्मक माया प्रकृति की ही शरण ग्रहण किए हुए हैं अब हमें इस त्रिगुणात्मक माया प्रकृति की शरण छोड़कर परमात्मा की शरण में जाना है इसमें सर्वप्रथम हमें अपने आप को जानने का प्रयास करना है क्योंकि जब तक हम इस स्थूल शरीर को ही अपना स्वरूप मानते रहेगें तब तक परमात्मा की ओर चलना असम्भव है। हम अपने आप को जब तक यह मानते रहेंगे कि यह भौतिक शरीर ही हमारा स्वरूप तब तक शरीर और संसार की कामना उत्पन्न होती रहेगीं और ये एक ऐसा रोग है जिसका इलाज केवल परमात्मा के पास ही है, संसार में इसका इलाज कहीं भी नहीं है, एक कामना पूर्ण होते ही दूसरी कामना तत्काल उत्पन्न हो जायगी इसी को माया कहते हैं, जीवात्मा अनादिकाल से इसी मायाजाल में फंसा हुआ है। अब इन कामनाओ को छोड़ना होगा।
" बहुत तड़फाया है इन कामनाओ  ने हमको अब इन कामनाओ को तड़फता छोड़ दो "
           

Sunday, April 14, 2019

रिश्ते बच जाते हैं

सुबह सुबह पति पत्नी में झगड़ा हो गया,

पत्नी गुस्से मे बोली - बस, बहुत कर लिया बरदाश्त, अब एक मिनट भी तुम्हारे साथ नही रह सकती।

पति भी गुस्से मे था, बोला "मैं भी तुम्हे झेलते झेलते तंग आ चुका हुं।

पति गुस्से मे ही दफ्तर चला गया पत्नी ने अपनी मां को फ़ोन किया और बताया कि वो सब छोड़ छाड़ कर बच्चो समेत मायके आ रही है, अब और ज़्यादा नही रह सकती इस नरक मे।

मां ने कहा - बेटी बहु बन के आराम से वही बैठ, तेरी बड़ी बहन भी अपने पति से लड़कर आई थी, और इसी ज़िद्द मे तलाक लेकर बैठी हुई है, अब तुने वही ड्रामा शुरू कर दिया है, ख़बरदार जो तुने इधर कदम भी रखा तो... सुलह कर ले पति से, वो इतना बुरा भी नही है।

मां ने लाल झंडी दिखाई तो बेटी के होश ठिकाने आ गए और वो फूट फूट कर रो दी, जब रोकर थक गई तो दिल हल्का हो चुका था,

पति के साथ लड़ाई का सीन सोचा तो अपनी खुद की भी काफ़ी गलतियां नज़र आई।

मुहं हाथ धोकर फ्रेश हुई और पति के पसंद की डीश बनाना शुरू कर दी, और साथ स्पेशल खीर भी बना ली, सोचा कि शाम को पति से माफ़ी मांग लुंगी, अपना घर फिर भी अपना ही होता है।

पति शाम को जब घर आया तो पत्नी ने उसका अच्छे से स्वागत किया, जैसे सुबह कुछ हुआ ही ना हो पति को भी हैरत हुई। खाना खाने के बाद पति जब खीर खा रहा था तो बोला डिअर, कभी कभार मैं भी ज़्यादती कर जाता हूँ, तुम दिल पर मत लिया करो, इंसान हूँ, गुस्सा आ ही जाता है।

पति पत्नी का शुक्रिया अदा कर रहा था, और पत्नी दिल ही दिल मे अपनी मां को दुआएं दे रही थी, जिसकी सख़्ती ने उसको अपना फैसला बदलने पर मजबूर किया था, वरना तो जज़्बाती फैसला घर तबाह कर देता।

अगर माँ-बाप अपनी शादीशुदा बेटी की हर जायज़ नाजायज़ बात को सपोर्ट करना बंद कर दे तो रिश्ते बच जाते है।

चुनाव 2019

मैं एक सप्ताह पहले ही मायावती के चुनाव के बाद NDA में शामिल होने के बारे में फेसबुक पर एक लाइन की पोस्ट डाल चुका हूं।

बात ये है, कि कांग्रेस तो कहीं आएगी ही नही। ठगबंधन को जरूर कुछ सीट मिलेंगी लेकिन सरकार बनाने की कुब्बत ठगबंधन में नहीं होगी। मायावती ठगबंधन की बजह से 2014 से बेहतर स्थिति में होगी। अगर उसे अस्तित्व बचाये रखना है तो उसे BJP/NDA का सहारा लेना पड़ेगा और नही लेगी सहारा तो ED और CBI जिंदाबाद।

मायावती का वोटबैंक भी इस चाल से वाकिफ है, इसलिए जहां गठबंधन का उमीदवार BSP का नहीं है वहां वे भाजपा को वोट कर रहे है। इन शतरंजी चालों को मुस्लिम और यादव वोटर समझने में नाकाम रहे हैं, और उत्तरप्रदेश की अनेकों सीटों पर ठगबंधन के समाजवादी  उम्मीदवारो को केवल मुस्लिम और यादव वोट ही मिलने के कारण उन्हें करारी हार का मुंह देखना पड़ेगा तथा कोर भाजपा वोट के साथ साथ दलित वोट भी मिलने के कारण भाजपा उम्मीदवार जीत का परचम लहरायेंगे।


भार, आयतन व दूरी कन्वर्शन तालिका




ऑनलाइन पैसा

जब ऑनलाइन पैसा कमाने की बात आती है, तो यह तय करना काफी मुश्किल हो सकता है कि क्या सही है और क्या गलत है। बहुत से लोग विभिन्न पाठ्यक्रमों को बेच रहे हैं जो कि चाँद और सितारों को तोड़ लाने का वायदा करते हैं, लेकिन एक बार जब आप वास्तविकता से रूबरू होते है तो उनमें से अधिकांश को छोड़ देते है।

इस लेख में, मैं आपको अपनी खुद की वेबसाइट पर ऑनलाइन पैसे कमाने के बारे में 10 सच बताऊंगा।

(1)सफलता कैसे मिले, इसकी कोई गाइड नहीं है
(2)यह कोई बहाना नहीं है कि आपके पास काम करने की पृष्ठभूमि या अनुभव नहीं है
(3)एक मुफ्त समाधान चुनना आपको महंगा पड़ सकता है
(4) आपका ज्ञान आपके विचार से अधिक मूल्यवान है
(5) दुनियाभर में आपके समय की कोई कीमत नही है
(6) उन स्थानों को लक्षित करना सुनिश्चित करें जहां अन्य सफलतापूर्वक पकड़ बना लेते हैं
(7) गलतियां करें, उनसे सीख ले और उनही दोहराया न जाये
(8) अकेले कार्य करना कठिन है
(9)अनावश्यक सेवाओं वट्रैफ़िक कहां से आ रहा है, इसके बीच बहुत बड़ा अंतर है मशीनरी की खरीद न करे
(10)ट्रैफ़िक कहां से आ रहा है, इसके बीच बहुत बड़ा अंतर है

परमात्मा भाग-14

 ईश्वर प्राप्ति हेतु शरणागति ही वो ब्रह्मास्त्र है जिसके बिना जीव ईश्वर प्राप्ति का अपना लक्ष्य नहीं पा सकता है। शरणागति केवल मन को ही करनी है और मन पर अनादिकाल से त्रिगुणात्मक माया प्रकृति का पक्का रंग चढ़ा हुआ है  ऐसा मन भगवान में नहीं लगेगा ऐसे में हमें गुरु की आवश्यकता है, जो अपनी कृपा से हमारे गन्दे मन को परमात्मा में लगाने में मदद करें। महापुरुष का संग तो आवश्यक है ही और ऐसा कोई महापुरुष दूर दूर तक नजर नहीं आ रहा जो केवल ईश्वर सम्बन्धी ही बात करे इस लिये समस्या बहुत जटिल है।  इस स्थिति से निपटने के लिए भगवान के दरवाजे पर ही दस्तक  देनी चाहिए और एकाग्र मन से प्रार्थना करनी चाहिए कि हे प्रभु आप ही निराकार हैं आप ही साकार हैं आप किसी के पुत्र बनते हैं तो किसी के पिता बनते हैं ,किसी के मित्र बनते हैं तो किसी के गुरु भी बने हैं, मैं सब ओर से निराश  होकर आपके पास आया हूँ आप या तो किसी अपने जैसे गुरु के पास मुझे भेज दें या फिर आप स्वयं ही मेरे गुरु बन जायें।

जैसे बन्जर भूमि में सैंकड़ों साल से कुछ भी अनाज पैदा नहीं हुआ तो उस बन्जर भूमि में यदि हम अनाज उगाना चाहें तो हमें बड़ी मेहनत करनी पड़ेगी, प्रारम्भ में इच्छा न होते हुए भी उस भूमि पर हल चलाना, पानी देना, खाद डालना ये सब करना होगा फिर भी गारन्टी नहीं कि कामयाबी मिलेगी  ही, लेकिन हमें निराश नहीं होना है, बार-बार मेहनत करेंगे तो एक दिन  कामयाबी मिलेगी ही। ठीक इसी प्रकार अनादिकाल से हमारे अन्तःकरण में त्रिगुणात्मक माया प्रकृति का मैल चढ़ा हुआ है, ऐसे गन्दे अन्तःकरण में एक पल के लिए भी ईश्वर सम्बन्धी बातें नहीं ठहर सकती, ऐसी दशा में हमें इच्छा न होते हुए भी भगवान की कथा, उनकी लीला पढ़नी हैं, सुननी हैं, सुनानी  हैं। रामायण कहती है कि -

बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मौह न भाग।
मौह गये बिनु रामपद होई न दृढ अनुराग।।

ईश्वर की लीलाऐं कथा, सतसंग इच्छा न होते हुए भी लगातार सुनने से हमारे अन्तःकरण में हलचल होने लगती है। 

Saturday, April 13, 2019

पुरुषोत्तम राम

एकटक देर तक उस सतपुरुष को निहारते रहने के बाद बुजुर्ग भीलनी के मुंह से बोल निकले :

"कहो राम! सबरी की डीह ढूंढ़ने में अधिक कष्ट तो नहीं हुआ?"

राम मुस्कुराए: "यहां तो आना ही था मां, कष्ट का क्या मूल्य...?"

    "जानते हो राम! तुम्हारी प्रतीक्षा तब से कर रही हूँ जब तुम जन्में भी नहीं थे। यह भी नहीं जानती थी कि तुम कौन हो? कैसे दिखते हो? क्यों आओगे मेरे पास..? बस इतना पता था कि कोई पुरुषोत्तम आएगा जो मेरी प्रतीक्षा का अंत करेगा..."

राम ने कहा: "तभी तो मेरे जन्म के पूर्व ही तय हो चुका था कि राम को सबरी के आश्रम में जाना है।"

     "एक बात बताऊँ प्रभु! भक्ति के दो भाव होते हैं। पहला मर्कट भाव, और दूसरा मार्जार भाव।

बन्दर का बच्चा अपनी पूरी शक्ति लगाकर अपनी माँ का पेट पकड़े रहता है ताकि गिरे न... उसे सबसे अधिक भरोसा माँ पर ही होता है और वह उसे पूरी शक्ति से पकड़े रहता है। यही भक्ति का भी एक भाव है, जिसमें भक्त अपने ईश्वर को पूरी शक्ति से पकड़े रहता है। दिन रात उसकी आराधना करता है........

".....पर मैंने यह भाव नहीं अपनाया। मैं तो उस बिल्ली के बच्चे की भाँति थी जो अपनी माँ को पकड़ता ही नहीं, बल्कि निश्चिन्त बैठा रहता है कि माँ है न, वह स्वयं ही मेरी रक्षा करेगी, और माँ सचमुच उसे अपने मुँह में टांग कर घूमती है... मैं भी निश्चिन्त थी कि तुम आओगे ही, तुम्हे क्या पकड़ना...।"

राम मुस्कुरा कर रह गए।

भीलनी ने पुनः कहा: "सोच रही हूँ बुराई में भी तनिक अच्छाई छिपी होती है न... कहाँ सुदूर उत्तर के तुम, कहाँ घोर दक्षिण में मैं। तुम प्रतिष्ठित रघुकुल के भविष्य, मैं वन की भीलनी... यदि रावण का अंत नहीं करना होता तो तुम कहाँ से आते?"

राम गम्भीर हुए। कहा:

"भ्रम में न पड़ो मां! राम क्या रावण का वध करने आया है?
......... अरे रावण का वध तो लक्ष्मण अपने पैर से बाण चला कर कर सकता है।

......... राम हजारों कोस चल कर इस गहन वन में आया है तो केवल तुमसे मिलने आया है मां, ताकि हजारों वर्षों बाद जब कोई पाखण्डी भारत के अस्तित्व पर प्रश्न खड़ा करे तो इतिहास चिल्ला कर उत्तर दे कि इस राष्ट्र को क्षत्रिय राम और उसकी भीलनी माँ ने मिल कर गढ़ा था।

............ जब कोई कपटी भारत की परम्पराओं पर उँगली उठाये तो काल उसका गला पकड़ कर कहे कि नहीं! यह एकमात्र ऐसी सभ्यता है जहाँ...... एक राजपुत्र वन में प्रतीक्षा करती एक दरिद्र वनवासिनी से भेंट करने के लिए चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार करता है।

.......... राम वन में बस इसलिए आया है ताकि जब युगों का इतिहास लिखा जाय तो उसमें अंकित हो कि सत्ता जब पैदल चल कर समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुँचे तभी वह रामराज्य है।

............ राम वन में इसलिए आया है ताकि भविष्य स्मरण रखे कि प्रतीक्षाएँ अवश्य पूरी होती हैं। राम रावण को मारने भर के लिए नहीं आया मां...!"

      सबरी एकटक राम को निहारती रहीं।

 राम ने फिर कहा:

"राम की वन यात्रा रावण युद्ध के लिए नहीं है माता! राम की यात्रा प्रारंभ हुई है भविष्य के लिए आदर्श की स्थापना के लिए।

........... राम निकला है ताकि विश्व को बता सके कि माँ की अवांछनीय इच्छओं को भी पूरा करना ही 'राम' होना है।

.............. राम निकला है कि ताकि भारत को सीख दे सके कि किसी सीता के अपमान का दण्ड असभ्य रावण के पूरे साम्राज्य के विध्वंस से पूरा होता है।

.............. राम आया है ताकि भारत को बता सके कि अन्याय का अंत करना ही धर्म है,

............  राम आया है ताकि युगों को सीख दे सके कि विदेश में बैठे शत्रु की समाप्ति के लिए आवश्यक है कि पहले देश में बैठी उसकी समर्थक सूर्पणखाओं की नाक काटी जाय, और खर-दूषणों का घमंड तोड़ा जाय।

......और,

.............. राम आया है ताकि युगों को बता सके कि रावणों से युद्ध केवल राम की शक्ति से नहीं बल्कि वन में बैठी सबरी के आशीर्वाद से जीते जाते हैं।"

सबरी की आँखों में जल भर आया। उसने बात बदलकर कहा: "बेर खाओगे राम?

राम मुस्कुराए, "बिना खाये जाऊंगा भी नहीं मां..."

सबरी अपनी कुटिया से छोटी सी टोकरी में बेर ले कर आई और राम के समक्ष रख दिया।

राम और लक्ष्मण खाने लगे तो कहा: "मीठे हैं न प्रभु?"

   "यहाँ आ कर मीठे और खट्टे का भेद भूल गया हूँ मां! बस इतना समझ रहा हूँ कि यही अमृत है...।"

  सबरी मुस्कुराईं, बोलीं: "सचमुच तुम मर्यादा पुरुषोत्तम हो, राम!"


गुरु

जीवन में हमें सबकुछ मालूम नहीं होता तो जो हमे मालूम नहीं है उसकी जानकारी लेने के लिए हमे गुरु की जरूरत होती है। परन्तु अब समस्या यह है कि गुरु कहाँ खोजे। किसी के बहकावे में आकर बिना सोचे समझे हम गुरु के पास चले गए बाद में पता चला कि महाराज जी हमसे भी कहीं अधिक माया में फंसे हुए हैं, तो हमारा तो ये मानव जीवन ही बर्बाद होगया। हमारे वेदों ने गुरु की पहचान बताई है कि :-

"तद्विज्ञानार्थ स गुरुमेवाभिगच्छेत्  समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्"

ये वेदमन्त्र बता रहा है कि गुरु शास्त्र वेदों का ज्ञाता हो साथ ही ब्रह्मनिष्ठ हो। ये दोनों शर्ते यदि कोई सन्तमहात्मा पूरी करता है तो तत्काल उसकी शरण में चले जाना चाहिए। 

परमात्मा भाग-13

शरणागति किसको करनी है। आत्मा के पास एक भौतिक शरीर है, कर्मइंद्रिया, ज्ञानइंद्रिया है  ,मन है, बुद्धि है, इनमें से किसको शरणागति करनी है। हमने स्थूल शरीर, इंद्रियां, बुद्धि भगवान को अर्पित कर दी तो क्या वास्तव में शरणागति हो जायेगी, नहीं क्योंकि सबसे बड़ी बीमारी तो हमारा मन है, अतः मन को ही शरणागति करनी है। क्योंकि मन ही बन्धन और मुक्ति का कारण है। अब समस्या यह है कि ये मन त्रिगुणात्मक माया प्रकृति की सन्तान है और अनादि काल से इस मन पर माया का मैल चढ़ा हुआ है तो ऐसे में मन को भगवान  के शरणागत करना असम्भव सा लगता है, क्योंकि जो भी आत्मा के पास है - जैसे इंद्रिया, मन, बुद्धि इनसबका निर्माण माया से ही हुआ है, इन इंद्रियों, मन, बुद्धि का  सेवाकर्म केवल त्रिगुणात्मक माया प्रकृति का एरिया ही है, माया से परे इनकी पहुँच नहीं है और परमात्मा माया से परे है। ऐसे में जो इंद्रियां, मन, बुद्धि आत्मा के पास हैं उनसे की गई साधना असली साधना नहीं है।

मन को माया और माया वाले ही अति प्रिय लगते हैं मायाधीन मन को भगवान कभी अच्छे नहीं लगेगें जैसे एक शराबी को दूध अच्छा नहीं लगता। अब ऐसे में जीव को तत्वज्ञान का होना अति आवशयक है, तभी जीवात्मा समझ पायेगा कि किधर जाने में उसका लाभ है । यदि जीवात्मा को संसार का आश्रय मिल जाय तो वो भगवान का आश्रय छोड़ देगा और यदि भगवान का आश्रय मिल जाये तो तत्काल संसार का छोड़ देगा एक तो छूटेगा ही दोनों रंग एक साथ नहीं चढ़ सकते हैं। ऐसे में गुरु की आवश्यकता तो  है। अब समस्या है कि गुरु कहाँ खोजे। किसी के बहकावे में आकर बिना सोचे समझे हम गुरु के पास चले गए बाद में पता चला कि महाराज जी हमसे भी कहीं अधिक माया में फंसे हुए हैं, तो हमारा तो ये मानव जीवन ही बर्बाद होगया। हमारे वेदों ने गुरु की पहचान बताई है कि :-

"तद्विज्ञानार्थ स गुरुमेवाभिगच्छेत्  समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्"

ये वेदमन्त्र बता रहा है कि गुरु शास्त्र वेदों का ज्ञाता हो साथ ही ब्रह्मनिष्ठ हो। ये दोनों शर्ते यदि कोई सन्तमहात्मा पूरी करता है तो तत्काल उसकी शरण में चले जाना चाहिए। 

परमात्मा भाग-12

शरणागत भक्त के कर्मफल का विधान परमात्मा समाप्त कर देते हैं इसकी पुष्टि भगवान श्री कृष्ण भगवत गीता में  इस श्लोक से करते हैं :-

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।

भावार्थ यह है कि भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को अन्तिम बात बताते हुए कहते हैं कि है अर्जुन तू समस्त प्रकार के धर्मो का परित्याग करके पूर्ण रूप से केवल मेरी ही शरण में आजा मैं तेरे समस्त कर्मो को ही समाप्त करके तेरा उद्धार कर दुंगा तू चिन्ता मत कर।

जो भक्त पूर्ण रूप से   भगवान की शरण में आ जाता है भगवान ऐसे अपने प्रिय भक्त की स्वयं देखरेख करते हैं और सदैव उसकी रक्षा करते हैं। इसकी पुष्टि गीता के इस श्लोक से होती है -

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम।।

भगवान कहते हैं कि जो भक्त अनन्यरूप से मेरी भक्ति करता है मैं उसकी सब तरह से रक्षा करता हूँ उसको फिर कभी मायाजाल में नहीं फसंने देता सदा के लिए उसका उद्धार कर देता हूँ।

परमात्मा अर्थात ईश्वर की कृपा प्राप्ति हेतु शरणागति ही वो ब्रह्मास्त्र है जिसके बिना जीव ईश्वर प्राप्ति का अपना लक्ष्य नहीं पा सकता । शरणागति से ईश्वर कृपा प्राप्त होगी और ईश्वर कृपा से ही जीव की मायानिवृत्ति होगी और मायानिवृत्ति होने पर तत्काल  लक्ष्य प्राप्ति सम्भव है। ईश्वर प्राप्ति का भक्तिमार्ग ही एक सही साधन है।
                   

Tuesday, April 9, 2019

परमात्मा भाग-11

 भगवान श्री कृष्ण भगवत गीता में  कहते हैं कि :-

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।

भावार्थ यह है कि भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को अन्तिम बात बताते हुए कहते हैं कि है अर्जुन तू समस्त प्रकार के धर्मो का परित्याग करके पूर्ण रूप से केवल मेरी ही शरण में आजा मैं तेरे समस्त कर्मो को ही समाप्त करके तेरा उद्धार कर दुंगा तू चिन्ता मत कर।

 जो भक्त पूर्ण रूप से   भगवान की शरण में आ जाता है भगवान ऐसे अपने प्रिय भक्त की स्वयं देखरेख करते हैं और सदैव उसकी रक्षा करते हैं। इसकी पुष्टि गीता के इस श्लोक से होती है -

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम।।

भगवान कहते हैं कि जो भक्त अनन्यरूप से मेरी भक्ति करता है मैं उसकी सब तरह से रक्षा करता हूँ उसको फिर कभी मायाजाल में नहीं फसंने देता सदा के लिए उसका उद्धार कर देता हूँ।
                 
ईश्वर की कृपा प्राप्ति हेतु शरणागति ही वो ब्रह्मास्त्र है जिसके बिना जीव ईश्वर प्राप्ति का अपना लक्ष्य नहीं पा सकता । शरणागति से ईश्वर कृपा प्राप्त होगी और ईश्वर कृपा से ही जीव की मायानिवृत्ति होगी और मायानिवृत्ति होने पर तत्काल  लक्ष्य प्राप्ति सम्भव है। ईश्वर प्राप्ति का यही एक सही साधन है और वो है भक्ति मार्ग। 

परमात्मा भाग-10

भगवत गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं -

मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्षयसि।।

भावार्थ है कि भगवान कहते हैं कि है अर्जुन तू पूर्णरूप से अपना मन मुझमें लगा दे तब तू मेरी कृपा से सम्पूर्ण विघ्नों से आसानी से तर जायेगा और यदि तू अहंकार के कारण मेरी बात नहीं सुनेगा तो निश्चित रूप से तेरा पतन हो जायेगा।

आगे  फिर भगवान शरणागति की  ही बात कहते हैं -

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्सयसि  शाश्वतम्।।

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन तू सर्वभाव से मेरी ही शरणागति को प्राप्त हो जा ऐसा करने से मेरी कृपा से अविनाशी परमपद अर्थात मेरे लोक परमधाम को प्राप्त कर लेगा जहां से फिर कोई लोटकर वापस नहीं आता।

जीवात्मा के द्वारा पूर्णरूप से परमात्मा के शरणागत होने पर ही   परमात्मा जीवात्मा पर कृपा करते हैं।  परमात्मा का एक रूप न्यायाधीश  है और एक रूप कृपालु है। न्यायाधीश के रूप में जीवात्मा के द्वारा किये गये कर्मो के विधान का   फैसला करते हैं और तद्नुसार कर्मो का फल देते हैं। कृपालु के रूप में कर्मविधान ही समाप्त हो जाता है, जिस जीवात्मा पर प्रभु कृपा करते हैं उस जीवात्मा पर उसके द्वारा किये गये कर्म व कर्मफल का कोई असर नहीं होता  उसके कर्म अकर्म में बदल जाते हैं। भगवत गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि -

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति।।

भावार्थ यह है कि भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन जो मनुष्य पूर्णरूप से मेरी शरण हो जाता है उस पर मैं कृपा करता हूँ और वो मेरी कृपा के फलस्वरूप तत्काल उसी क्षण मेरा भक्त ( धर्मात्मा) हो जाता है और तत्काल निरन्तर रहने वाली सुख शान्ति को प्राप्त हो जाता है। हे कुन्तीनन्दन अर्जुन निडर होकर  यह घोषणा कर दो कि मेरे शरणागत भक्त का पतन नहीं हो सकता क्योंकि वो पूर्णरूप से मेरी शरण में है। 

झगड़ा पति पत्नि का

पति ने पत्नी को किसी बात पर तीन थप्पड़ जड़ दिए, पत्नी ने इसके जवाब में अपना सैंडिल पति की तरफ़ फेंका, सैंडिल का एक सिरा पति के सिर को छूता हुआ निकल गया।

मामला रफा-दफा हो भी जाता, लेकिन पति ने इसे अपनी तौहिन समझा, रिश्तेदारों ने मामला और पेचीदा बना दिया, न सिर्फ़ पेचीदा बल्कि संगीन, सब रिश्तेदारों ने इसे खानदान की नाक कटना कहा, यह भी कहा कि पति को सैडिल मारने वाली औरत न वफादार होती है न पतिव्रता।

इसे घर में रखना, अपने शरीर में मियादी बुखार पालते रहने जैसा है। कुछ रिश्तेदारों ने यह भी पश्चाताप जाहिर किया कि ऐसी औरतों का भ्रूण ही समाप्त कर देना चाहिए।

बुरी बातें चक्रवृृद्धि ब्याज की तरह बढ़ती है, सो दोनों तरफ खूब आरोप उछाले गए। ऐसा लगता था जैसे दोनों पक्षों के लोग आरोपों का वॉलीबॉल खेल रहे हैं। लड़के ने लड़की के बारे में और लड़की ने लड़के के बारे में कई असुविधाजनक बातें कही।


मुकदमा दर्ज कराया गया। पति ने पत्नी की चरित्रहीनता का तो पत्नी ने दहेज उत्पीड़न का मामला दर्ज कराया। छह साल तक शादीशुदा जीवन बीताने और एक बच्ची के माता-पिता होने के बाद आज दोनों में तलाक हो गया।

पति-पत्नी के हाथ में तलाक के काग़ज़ों की प्रति थी। दोनों चुप थे, दोनों शांत, दोनों निर्विकार।
मुकदमा दो साल तक चला था। दो साल से पत्नी अलग रह रही थी और पति अलग, मुकदमे की सुनवाई पर दोनों को आना होता। दोनों एक दूसरे को देखते जैसे चकमक पत्थर आपस में रगड़ खा गए हों।

दोनों गुस्से में होते। दोनों में बदले की भावना का आवेश होता। दोनों के साथ रिश्तेदार होते जिनकी हमदर्दियों में ज़रा-ज़रा विस्फोटक पदार्थ भी छुपा होता।

लेकिन कुछ महीने पहले जब पति-पत्नी कोर्ट में दाखिल होते तो एक-दूसरे को देख कर मुँह फेर लेते। जैसे जानबूझ कर एक-दूसरे की उपेक्षा कर रहे हों, वकील औऱ रिश्तेदार दोनों के साथ होते।

दोनों को अच्छा-खासा सबक सिखाया जाता कि उन्हें क्या कहना है। दोनों वही कहते। कई बार दोनों के वक्तव्य बदलने लगते। वो फिर सँभल जाते। अंत में वही हुआ जो सब चाहते थे यानी तलाक ................

पहले रिश्तेदारों की फौज साथ होती थी, आज थोड़े से रिश्तेदार साथ थे। दोनों तरफ के रिश्तेदार खुश थे, वकील खुश थे, माता-पिता भी खुश थे।

तलाकशुदा पत्नी चुप थी और पति खामोश था।
यह महज़ इत्तेफाक ही था कि दोनों पक्षों के रिश्तेदार एक ही टी-स्टॉल पर बैठे , कोल्ड ड्रिंक्स लिया। यह भी महज़ इत्तेफाक ही था कि तलाकशुदा पति-पत्नी एक ही मेज़ के आमने-सामने जा बैठे।

लकड़ी की बेंच और वो दोनों .......
''कांग्रेच्यूलेशन .... आप जो चाहते थे वही हुआ ....'' स्त्री ने कहा।
''तुम्हें भी बधाई ..... तुमने भी तो तलाक दे कर जीत हासिल की ....'' पुरुष बोला।

''तलाक क्या जीत का प्रतीक होता है????'' स्त्री ने पूछा।
''तुम बताओ?''
पुरुष के पूछने पर स्त्री ने जवाब नहीं दिया, वो चुपचाप बैठी रही, फिर बोली, ''तुमने मुझे चरित्रहीन कहा था....
अच्छा हुआ.... अब तुम्हारा चरित्रहीन स्त्री से पीछा छूटा।''
''वो मेरी गलती थी, मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था'' पुरुष बोला।
''मैंने बहुत मानसिक तनाव झेला है'', स्त्री की आवाज़ सपाट थी न दुःख, न गुस्सा।

''जानता हूँ पुरुष इसी हथियार से स्त्री पर वार करता है, जो स्त्री के मन और आत्मा को लहू-लुहान कर देता है... तुम बहुत उज्ज्वल हो। मुझे तुम्हारे बारे में ऐसी गंदी बात नहीं करनी चाहिए थी। मुझे बेहद अफ़सोस है, '' पुरुष ने कहा।

स्त्री चुप रही, उसने एक बार पुरुष को देखा।
कुछ पल चुप रहने के बाद पुरुष ने गहरी साँस ली और कहा, ''तुमने भी तो मुझे दहेज का लोभी कहा था।''
''गलत कहा था''.... पुरुष की ओऱ देखती हुई स्त्री बोली।
कुछ देर चुप रही फिर बोली, ''मैं कोई और आरोप लगाती लेकिन मैं नहीं...''

प्लास्टिक के कप में चाय आ गई।
स्त्री ने चाय उठाई, चाय ज़रा-सी छलकी। गर्म चाय स्त्री के हाथ पर गिरी।
स्सी... की आवाज़ निकली।
पुरुष के गले में उसी क्षण 'ओह' की आवाज़ निकली। स्त्री ने पुरुष को देखा। पुरुष स्त्री को देखे जा रहा था।
''तुम्हारा कमर दर्द कैसा है?''
''ऐसा ही है कभी वोवरॉन तो कभी काम्बीफ्लेम,'' स्त्री ने बात खत्म करनी चाही।

''तुम एक्सरसाइज भी तो नहीं करती।'' पुरुष ने कहा तो स्त्री फीकी हँसी हँस दी।
''तुम्हारे अस्थमा की क्या कंडीशन है... फिर अटैक तो नहीं पड़े????'' स्त्री ने पूछा।
''अस्थमा।डॉक्टर सूरी ने स्ट्रेन... मेंटल स्ट्रेस कम करने को कहा है, '' पुरुष ने जानकारी दी।

स्त्री ने पुरुष को देखा, देखती रही एकटक। जैसे पुरुष के चेहरे पर छपे तनाव को पढ़ रही हो।
''इनहेलर तो लेते रहते हो न?'' स्त्री ने पुरुष के चेहरे से नज़रें हटाईं और पूछा।
''हाँ, लेता रहता हूँ। आज लाना याद नहीं रहा, '' पुरुष ने कहा।

''तभी आज तुम्हारी साँस उखड़ी-उखड़ी-सी है, '' स्त्री ने हमदर्द लहजे में कहा।
''हाँ, कुछ इस वजह से और कुछ...'' पुरुष कहते-कहते रुक गया।
''कुछ... कुछ तनाव के कारण,'' स्त्री ने बात पूरी की।

पुरुष कुछ सोचता रहा, फिर बोला, ''तुम्हें चार लाख रुपए देने हैं और छह हज़ार रुपए महीना भी।''
''हाँ... फिर?'' स्त्री ने पूछा।
''वसुंधरा में फ्लैट है... तुम्हें तो पता है। मैं उसे तुम्हारे नाम कर देता हूँ। चार लाख रुपए फिलहाल मेरे पास नहीं है।'' पुरुष ने अपने मन की बात कही।

''वसुंधरा वाले फ्लैट की कीमत तो बीस लाख रुपए होगी??? मुझे सिर्फ चार लाख रुपए चाहिए....'' स्त्री ने स्पष्ट किया।
''बिटिया बड़ी होगी... सौ खर्च होते हैं....'' पुरुष ने कहा।
''वो तो तुम छह हज़ार रुपए महीना मुझे देते रहोगे,'' स्त्री बोली।
''हाँ, ज़रूर दूँगा।''
''चार लाख अगर तुम्हारे पास नहीं है तो मुझे मत देना,'' स्त्री ने कहा।
उसके स्वर में पुराने संबंधों की गर्द थी।

पुरुष उसका चेहरा देखता रहा....
कितनी सह्रदय और कितनी सुंदर लग रही थी सामने बैठी स्त्री जो कभी उसकी पत्नी हुआ करती थी।
स्त्री पुरुष को देख रही थी और सोच रही थी, ''कितना सरल स्वभाव का है यह पुरुष, जो कभी उसका पति हुआ करता था। कितना प्यार करता था उससे...

एक बार हरिद्वार में जब वह गंगा में स्नान कर रही थी तो उसके हाथ से जंजीर छूट गई। फिर पागलों की तरह वह बचाने चला आया था उसे। खुद तैरना नहीं आता था लाट साहब को और मुझे बचाने की कोशिशें करता रहा था... कितना अच्छा है... मैं ही खोट निकालती रही...''

पुरुष एकटक स्त्री को देख रहा था और सोच रहा था, ''कितना ध्यान रखती थी, स्टीम के लिए पानी उबाल कर जग में डाल देती। उसके लिए हमेशा इनहेलर खरीद कर लाती, सेरेटाइड आक्यूहेलर बहुत महँगा था। हर महीने कंजूसी करती, पैसे बचाती, और आक्यूहेलर खरीद लाती। दूसरों की बीमारी की कौन परवाह करता है? ये करती थी परवाह! कभी जाहिर भी नहीं होने देती थी। कितनी संवेदना थी इसमें। मैं अपनी मर्दानगी के नशे में रहा। काश, जो मैं इसके जज़्बे को समझ पाता।''

दोनों चुप थे, बेहद चुप।
दुनिया भर की आवाज़ों से मुक्त हो कर, खामोश।
दोनों भीगी आँखों से एक दूसरे को देखते रहे....

''मुझे एक बात कहनी है, '' उसकी आवाज़ में झिझक थी।
''कहो, '' स्त्री ने सजल आँखों से उसे देखा।
''डरता हूँ,'' पुरुष ने कहा।
''डरो मत। हो सकता है तुम्हारी बात मेरे मन की बात हो,'' स्त्री ने कहा।
''तुम बहुत याद आती रही,'' पुरुष बोला।
''तुम भी,'' स्त्री ने कहा।
''मैं तुम्हें अब भी प्रेम करता हूँ।''
''मैं भी.'' स्त्री ने कहा।

दोनों की आँखें कुछ ज़्यादा ही सजल हो गई थीं।
दोनों की आवाज़ जज़्बाती और चेहरे मासूम।
''क्या हम दोनों जीवन को नया मोड़ नहीं दे सकते?'' पुरुष ने पूछा।
''कौन-सा मोड़?''
''हम फिर से साथ-साथ रहने लगें... एक साथ... पति-पत्नी बन कर... बहुत अच्छे दोस्त बन कर।''

''ये पेपर?'' स्त्री ने पूछा।
''फाड़ देते हैं।'' पुरुष ने कहा औऱ अपने हाथ से तलाक के काग़ज़ात फाड़ दिए। फिर स्त्री ने भी वही किया। दोनों उठ खड़े हुए। एक दूसरे के हाथ में हाथ डाल कर मुस्कराए। दोनों पक्षों के रिश्तेदार हैरान-परेशान थे। दोनों पति-पत्नी हाथ में हाथ डाले घर की तरफ चले गए। घर जो सिर्फ और सिर्फ पति-पत्नी का था।।

पति पत्नी में प्यार और तकरार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं जरा सी बात पर कोई ऐसा फैसला न लें कि आपको जिंदगी भर अफसोस हो।।

परमात्मा भाग-9

ईश्वर ही अपनी कृपा से जीव को त्रिगुणात्मक माया प्रकृति से बन्धन मुक्त कर सकते हैं अन्य किसी दूसरी शक्ति में सामर्थ्य नहीं है और न  ही जीव अपने बल पर साधना करके इस माया से बन्धनमुक्त हो सकता है इसके अतिरिक्त किसी सन्त महात्मा में भी ऐसी सामर्थ्य नहीं है जो इस असम्भव कार्य को सम्भव कर सके। फिर ऐसा क्यों कहते हैं कि ईश्वर प्राप्ति में गुरु का होना अनिवार्य है, वो इस लिये कहते हैं कि वास्तविक मायातीत महापुरुष  इस प्रक्रिया से गुजरे हुए होते हैं उन्हें इस मार्ग का पूर्ण ज्ञान होता है और उसी तरह का ज्ञान वे हमें समझाते हैं। अब शिष्य के ऊपर निर्भर है कि वो उस मार्ग कितना चलता है यदि साधक गुरु के बताये मार्ग पर नहीं चलेगा तो ऐसी दशा में स्वयं जगदगुरु ब्रह्मा जी भी उस शिष्य का कुछ नहीं करसकते। केवल ईश्वर की कृपा से ही ईश्वर को जान सकते हैं, प्राप्त करसकते हैं, इस सम्बन्ध में  रामचरित्र मानस में तुलसीदास जी ने लिखा है -

राम कृपा बिनु सुनु खगराई।
जानि न जाय राम प्रभुताई।।

अब तो केवल परमात्मा की कृपा कैसे प्राप्त हो इस सम्बन्ध में ही बिचार करना है। ईश्वर कृपा प्राप्ति हेतु जीवो ने अलग अलग प्रकार के तरीके अपनाये परन्तु कामयाबी नहीं  मिली क्योंकि वे सभी तरीके सटीक नहीं थे। हमने सबकुछ किया परन्तु भगवान से प्यार नहीं किया, प्रेम से ही भगवान भक्त के वश में होजाते हैं । रामचरित्र मानस में लिखा है कि -

रामहु केवल प्रेम प्यारा।
जानलेहु जो जाननि हारा।।

 प्रेम भक्ति के सामने ब्रह्मज्ञान बहुत पीछे है।रामचरित्र मानस में एक प्रसंग आता है जब विश्वामित्र जी के साथ राम और लक्ष्मण धनुषयज्ञ देखने राजा जनक के यहां जाते हैं और जब राजा जनक जो बहुत बड़े ब्रह्मज्ञानी थे उन्हें विदेह कहा जाता है, जैसे ही जनक ने राम लक्ष्मण को देखा तत्काल ब्रह्मज्ञान गायब हो गया और प्रेमानन्द उत्पन्न होगया और तत्काल जनक विश्वामित्र जी से कहने लगे -

इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा।
बरबस ब्रह्म सुखहि मन त्यागा।।

एक पशु होता है जिसे हम गधा कहते हैं उस पर भी परमात्मा यदि अपनी कृपा करदे तो वह गधा भी परमात्मा को जान सकता है, प्राप्त कर सकता है। अब ईश्वर की कृपा कैसे प्राप्त हो इस पर कुछ विचार करते हैं। परमात्मा की कृपा प्राप्ति हेतु परमात्मा की एक शर्त है जो हमे पूरी करनी होगी और वह शर्त है परमात्मा की शरणागति। यदि जीवात्मा किसी तरह से अपने मन और बुध्दि का समर्पण परमात्मा को करदे तब लक्ष्य पूरा होने में देर नहीं है। भगवत गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं  कि -

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुध्दिं निवेशय।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्धवं न संशयः।।

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि है अर्जुन अपने मन और बुध्दि  को  मुझमें ही प्रविष्ट करदे, इसमें कोई सन्देह नहीं है कि उसके बाद तू मुझमें ही निवास करेगा। फिर भगवान कहते हैं कि -

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मदव्यपाश्रयः।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्।।

भगवान कहते हैं कि मेरे शरणागत होने वाला मेरा भक्त सदा सब कर्म करता हुआ भी मेरी  कृपा से शाश्वत अविनाशी पद को अर्थात मेरे परमधाम को प्राप्त हो जाता है। 

Monday, April 8, 2019

टेम्प्रेचर कन्वर्शन तालिका


क्रोध पर नियंत्रण

द्रोपदी चीरहरण होने के बाद द्रोणाचार्य भीष्म के कमरे में आकर अपना दुःख प्रकट करने लगे की-

"मैं बहुत शर्मसार और दुखी हूँ की ये सब मेरी आँखों को देखना पड़ा, इस से बेहतर मैं मर जाता" वगैरह वगैरह,
जिसपर भीष्म का जवाब था की "मैं तो ये सोच रहा हूँ की जब अर्जुन हमला करेगा तो उस से कैसे निबटेंगे",
द्रोणाचार्य का सारा दुःख आश्चर्य में बदल गया, उन्होंने भीष्म से पूछा "तो क्या अर्जुन आज ही हमला कर देगा"
भीष्म का जवाब था "अगर कृष्ण उसके साथ ना होते तो वो बेशक आज ही हमला कर देता और हमारी सेना उसे यहीं महल में मार गिराती, लेकिन क्यूंकि कृष्ण उसके साथ है इसलिए वो पूरी तैयारी करके हमला करेगा, लेकिन करेगा जरूर".

ये वाकया महाभारत में कृष्ण के अपने और दूसरों के गुस्सों को काबू कर पाने की सबसे बड़ी गवाही है,
कृष्ण एक बहुत ही गुस्सैल लड़ाका थे, सभी को डर रहता था की इनसे पन्गा नहीं लेना चाहिए,  कंस से लेकर शिशुपाल और जरासंध तक कृष्ण ने ना जाने कितने बड़े बड़े राजा ठिकाने लगा दिए थे।


कृष्ण के गुस्से को दिशान्तरण करने के तीन बड़े उदाहरण है:

1. पांडव गुस्से में होते हैं, द्रौपदी सबसे ज्यादा गुस्से में होती है, द्रौपदी कसम ले लेती है की वो अपने बाल अब दुशाशन के खून से ही धोएगी, वो बार बार युद्ध के लिए हुंकार भर रही होती है, सारे पाण्डंव चुपचाप सुन रहे होते हैं,

ऐसे में कृष्ण द्रौपदी को धमकाते हुए कहते है की तुम्हारे बालों के लिए वो हस्तिनापुर की लाखों महिलाओं का सिन्दूर नहीं उजड़ने देंगे, जब तक शांति की संभावना होगी तब तक शान्ति ही स्थापित करने की कोशिश की जायेगी।

द्रौपदी ये सुनकर चुप रह जाती है।

कृष्ण को पता था की इस युद्ध और दुशाशन के खून की कीमत द्रौपदी अपने पाँचों बेटों की जान से चुकाने वाली है।

2. दूसरा मौका था, जब कृष्ण पांच गाँव मांगने कौरवों के पास जाते हैं। दुर्योधन वहीँ उन्हें ग्वाला और पता नहीं क्या क्या कहने लग जाता है। कृष्ण के साथ आये हुए थे उनके भाई सात्यकि, जो महाभारत के सबसे बड़े योद्धाओं में माने जाते हैं, कृष्ण के कुछ कहने से पहले ही सात्यकि अपनी तलवार निकाल के भरी सभा के बीच दुर्योधन की छाती पर तान देते है। पूरी सभा सन्न रह जाती है कि ये क्या हो गया, युवराज की छाती की और सभा के बीचोबीच तलवार तनी हुई है। कृष्ण तभी सात्यकि का हाथ पकड़ लेते हैं, और युद्ध की चेतावनी दे डालते हैं। सात्यकि का हस्तिनापुर के महल में खड़े होकर दुर्योधन के विरुद्ध तलवार निकालना दुर्योधन को उसकी औकात बताना था, और उसे वहीँ पर नहीं मारना उसको अपनी ताकत और साहस दोनों बताना था।
दुर्योधन की सेना चाहती तो तलवार तानने के लिए सात्यकि को वहीँ मार सकती थी, लेकिन वो लोग कुछ नहीं करते।

3. तीसरा मौका था जब भीष्म फैसला कर लेते है की वो युधिष्ठिर को गिरफ्तार करके युद्ध ख़त्म कर देंगे,
भीष्म को रोक सके ऐसा कोई योद्धा नहीं था पांडवों की सेना में, भीष्म युद्धिष्ठिर को ललकारते हुए एलान कर देते है की या तो युद्धिष्ठिर आ के उन से लडे वरना वो कुछ ही दिनों में पांडवों की पूरी सेना को अकेला मार गिराएंगे, युद्धिष्ठिर को वहाँ भेज देते तो युद्ध उसी दिन ख़त्म हो जाना था, इसलिए कृष्ण युद्ध में हथियार ना उठाने की अपनी कसम को तोड़ देते है, और सुदर्शन चक्र लेकर भीष्म के सामने आ जाते है की भीष्म ने अगर एक भी पैदल सैनिक पर हथियार उठाया तो कृष्ण उसकी गर्दन उतार देंगे। भीष्म ये देखकर हथियार नीचे डालकर हाथ जोड़कर सामने खड़े हो जाते है, लेकिन कृष्ण उन्हें नहीं मारते, क्यूंकि उन्हें अपनी ताकत का डर बनाये रखना था, नाकि युद्ध में उतरना था।

ये तीनो ही मौके कृष्ण के गुस्से और गुस्से को अपनी फायदे के तौर पर इस्तेमाल करने के बेहतरीन उदाहरण हैं। कृष्ण दुश्मन को धमकाते हैं, लेकिन उसे मारते नहीं है, वो उसे मारते तभी है जब कोई और चारा ही ना बचा हो, क्यूंकि कृष्ण को परिणाम की समझ थी। उन्हें मालूम था की एक एक पैदल सैनिक का उसके घर पर कोई इंतज़ार कर रहा है। वो ना तो द्रौपदी के गुस्से को सैनिकों की जान लेने लायक समझते है, ना ही भीष्म और सात्यकि के शौर्य को। इंसान को क्रोध करना तो चाहिए पर उस पर कृष्ण जैसा नियंत्रण भी बनाये रखना चाहिए क्योंकि क्रोध आपके लिए विजय पाने के लिये विकल्प तलाशने में मदद करता है पर नियंत्रित न होने पर हर रास्ते को बन्द भी कर देता हैं।

जय श्री कृष्ण
जय श्री राधे

परमात्मा भाग-8

भक्ति मार्ग-

साधक चाहे कर्म मार्ग का हो, ज्ञान मार्ग का हो, चाहे भक्ति मार्ग का हो, चाहे किसी भी मार्ग का साधक हो उस साधक को त्रिगुणात्मक माया प्रकृति को जीतकर ही परमात्मा तक पहुँच सकता है यह वचन अटल सत्य है । शास्त्र कहते हैं कि -

" भयं द्वितीयाभिनिवेशतः स्यादीशादपेतस्य विपर्ययोऽस्मृतिः "

कृष्ण बहिर्मुख जीव कहँ, माया करति आधीन।
ताते भूल्यो आप कहँ, बन्यो विषय - रस - मीन।।

तात्पर्य यह है कि जीव अनादिकाल से अपने स्वामी परमात्मा से बिमुख है अतएव माया ने अवसर पाकर जीवात्मा को पूर्णरूप से दबोच लिया और पूर्णतः जीव को अपने वश में कर लिया। परिणामस्वरूप जीव स्वयं को देह (शरीर) मानने लगा तथा तत्काल संसारी विषयो में आसक्त हो गया अब चाहे किसी भी मार्ग का साधक हो उसे त्रिगुणात्मक माया प्रकृति को जीतकर ही परमात्मा को प्राप्त करना होगा क्योंकि ये त्रिगुणात्मक माया प्रकृति ही ईश्वर प्राप्ति में सबसे बड़ी बाधा है। माया प्रकृति बहुत बड़ी शक्ति है, बड़ी बड़ी हस्तियां ब्रह्मा शंकर भी  इस माया से डरते हैं । रामायण कहती है कि -

सिव चतुरानन जेहि डेराही।
अपर जीव केहि लेखे माही।।

केवल भक्ति से ही इस प्रचण्ड माया को जीता जा सकता है अन्य किसी साधन से इस माया को नहीं जीत सकते हैं।

त्रिगुणात्मक माया प्रकृति परमात्मा की शक्ति है और परमात्मा की शक्ति पर परमात्मा  ही विजय पा सकते हैं परमात्मा के  अतिरिक्त किसी में भी इतनी हिम्मत नहीं है जो इस त्रिगुणात्मक माया प्रकृति पर विजय प्राप्त कर सके। परन्तु इस विषय पर भी विचार करना आवश्यक है कि कितने ही भक्तो ने इस त्रिगुणात्मक माया प्रकृति पर विजय प्राप्त करके ईश्वर को प्राप्त किया है ईश्वर को जाना है फिर उन्होने कैसे इस प्रचण्ड माया को जीत लिया जिस माया से ब्रह्मा, शंकर भी भयभीत होते हैं। यह माया प्रकृति परमात्मा की शक्ति होने से परमात्मा की ही बराबर शक्तिशाली है तथा परमात्मा की आज्ञा से उनकी प्रेरणा से ही यह माया प्रकृति अपना कार्य करती है। इसका सीधे - सीधे मतलब यह निकला यदि किसी भी कारण से हमारी मित्रता ईश्वर से हो जाये तो हम बड़ी आसानी से इस माया प्रकृति पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। तुलसीदास जी ने रामचरित्र मानस में लिखा है कि -

जो माया सब जगहि नचावा।
जासु चरित्र लखि काहु न पावा।।
सोई प्रभु भ्रू बिलास खगराजा।
नाच नटी इव सहित समाजा।।

जो माया सारे संसार को नचाती है जिसका चरित्र कोई जान ही नहीं पाया वही माया अपने परिवार सहित परमात्मा के एक इशारे पर नटी की तरह नाचती है और परमात्मा की आज्ञा की प्रतीक्षा करती है। अब हम इस उलझन में पड़ गये कि न तो हम भगवान को जीत सकते हैं और न माया को ही जीत सकते हैं  फिर क्या करे ?

त्रिगुणात्मक माया प्रकृति जीव के ईश्वर प्राप्ति मार्ग में महान बाधक है क्योंकि यह त्रिगुणात्मक माया प्रकृति परमात्मा और जीव के बीच स्थित है जिस कारण से मायाधीन जीव पर त्रिगुणात्मक माया प्रकृति की छाया पड़ रही है और करोड़ो प्रयत्न करने पर भी जीवात्मा को परमात्मा का दर्शन नहीं हो रहा। अब हमें ऐसा प्रयास  करना चाहिए जिससे जीव माया रूपी भवसागर को पार करके परमात्मा तक पहुँच जाए जो कि असम्भव सा लगता है। यह असम्भव  सम्भव कैसे हो इस पर कुछ विचार करते हैं। वेदशास्त्र ,पुराण , गीता, रामायण तथा महापुरुष कहते हैं कि यह त्रिगुणात्मक माया प्रकृति परमात्मा की शक्ति है और यह परमात्मा की ही आज्ञा मानती है जीव का माया पर वश नहीं चलता। स्वयं परमात्मा ही अपनी कृपा से जीवात्मा को पूर्णरूप से इस त्रिगुणात्मक माया प्रकृति से बन्धनमुक्त कर सकते हैं यही अटल सत्य है। भगवत गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि -

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।

भगवान कहते हैं कि मेरी यह माया दैवी गुणमयी माया है और बड़ी दुरत्यय है अर्थात इससे पार पाना अत्यन्त कठिन है। जो जीवात्मा केवल मेरे ही शरण होते हैं वे जीवात्मा ही इस माया को तर जाते हैं अर्थात जो जीवात्मा पूर्णरूप से मेरी ही शरण में आ जाते हैं उस मेरे ही शरणागत जीवात्मा को स्वयं मैं इस त्रिगुणात्मक माया प्रकृति से बन्धनमुक्त करके अपने लोक की प्राप्ति करा देता हूँ। अतः निष्कर्ष यह निकला कि परमात्मा की कृपा से ही जीवात्मा माया को पार करके परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। 

अभिमान

एक पंडित जी थे। उन्होंने एक नदी के किनारे अपना आश्रम बनाया हुआ था। पंडित जी बहुत विद्वान थे। उनके आश्रम में दूर-दूर से लोग ज्ञान प्राप्त करने आते थे।

नदी के दूसरे किनारे पर लक्ष्मी नाम की एक ग्वालिन अपने बूढ़े पिता के साथ रहती थी। लक्ष्मी सारा दिन अपनी गायों को देखभाल करती थी। सुबह जल्दी उठकर अपनी गायों को नहला कर दूध दुहती, फिर अपने पिताजी के लिए खाना बनाती, तत्पश्चात् तैयार होकर दूध बेचने के लिए निकल जाया करती थी।

पंडित जी के आश्रम में भी दूध लक्ष्मी के यहाँ से ही आता था। एक बार पंडित जी को किसी काम से शहर जाना था। उन्होंने लक्ष्मी से कहा कि उन्हें शहर जाना है, इसलिए अगले दिन दूध उन्हें जल्दी चाहिए। लक्ष्मी अगले दिन जल्दी आने का वादा करके चली गयी।

अगले दिन लक्ष्मी ने सुबह जल्दी उठकर अपना सारा काम समाप्त किया और जल्दी से दूध उठाकर आश्रम की तरफ निकल पड़ी। नदी किनारे उसने आकर देखा कि कोई मल्लाह अभी तक आया नहीं था। लक्ष्मी बगैर नाव के नदी कैसे पार करती ? फिर क्या था, लक्ष्मी को आश्रम तक पहुँचने में देर हो गयी। आश्रम में पंडित जी जाने को तैयार खड़े थे। उन्हें सिर्फ लक्ष्मी का इन्तजार था। लक्ष्मी को देखते ही उन्होंने लक्ष्मी को डाँटा और देरी से आने का कारण पूछा।

लक्ष्मी ने भी बड़ी मासूमियत से पंडित जी से कह दिया कि- “नदी पर कोई मल्लाह नहीं था, मै नदी कैसे पार करती ? इसलिए देर हो गयी।“

पंडित जी गुस्से में तो थे ही, उन्हें लगा कि लक्ष्मी बहाने बना रही है। उन्होंने भी गुस्से में लक्ष्मी से कहा, ‘‘क्यों बहाने बनाती है। लोग तो जीवन सागर को भगवान का नाम लेकर पार कर जाते हैं, तुम एक छोटी सी नदी पार नहीं कर सकती?”

पंडित जी की बातों का लक्ष्मी पर बहुत गहरा असर हुआ। दूसरे दिन भी जब लक्ष्मी दूध लेकर आश्रम जाने निकली तो नदी के किनारे मल्लाह नहीं था। लक्ष्मी ने मल्लाह का इंतजार नहीं किया। उसने भगवान को याद किया और पानी की सतह पर चलकर आसानी से नदी पार कर ली। इतनी जल्दी लक्ष्मी को आश्रम में देख कर पंडित जी हैरान रह गये, उन्हें पता था कि कोई मल्लाह इतनी जल्दी नहीं आता है।

उन्होंने लक्ष्मी से पूछा- “ तुमने आज नदी कैसे पार की ? इतनी सुबह तो कोई मल्लाह नही मिलता।”

लक्ष्मी ने बड़ी सरलता से कहा- ‘‘पंडित जी आपके बताये हुए तरीके से नदी पार कर ली। मैंने भगवान् का नाम लिया और पानी पर चलकर नदी पार कर ली।’’

पंडित जी को लक्ष्मी की बातों पर विश्वास नहीं हुआ। उसने लक्ष्मी से फिर पानी पर चलने के लिए कहा। लक्ष्मी नदी के किनारे गयी और उसने भगवान का नाम जपते-जपते बड़ी आसानी से नदी पार कर ली।

पंडित जी हैरान रह गये। उन्होंने भी लक्ष्मी की तरह नदी पार करनी चाही। पर नदी में उतरते वक्त उनका ध्यान अपनी धोती को गीली होने से बचाने में लगा था। वह पानी पर नहीं चल पाये और धड़ाम से पानी में गिर गये।

 पंडित जी को गिरते देख लक्ष्मी ने हँसते हुए कहा- ‘‘आपने तो भगवान का नाम लिया ही नहीं, आपका सारा ध्यान अपनी नयी धोती को बचाने में ही लगा हुआ था।’’

पंडित जी को अपनी गलती का अहसास हो गया। उन्हें अपने ज्ञान पर बड़ा अभिमान था। पर अब उन्होंने जान लिया था कि भगवान को पाने के लिए किसी भी ज्ञान की जरूरत नहीं होती। उसे तो पाने के लिए सिर्फ सच्चे मन से याद करने की जरूरत है। 

परमात्मा भाग-7

भक्ति योग


अब तक कर्म मार्ग और ज्ञान मार्ग पर बहुत ही संक्षेप में चर्चा की गई अब आगे भक्ति योग पर संक्षेप में चर्चा करते हैं।

वैसे तो ज्ञान और भक्ति  दोनों ही मार्ग से जीव कल्याण होता है यह बिल्कुल सच्ची बात है,   फिर भी ज्ञान की अपेक्षा भक्ति की अधिक महिमा है। ज्ञान से तो अखण्ड रस की प्राप्ति होती है परन्तु भक्ति से  अनन्त रस की प्राप्ति होती है जो कि प्रतिक्षण वर्धमान है। जैसे  उदाहरण स्वरूप संसार में किसी वस्तु का ज्ञान हो जाता है तो उस वस्तु के प्रति जो अनजानापन था, जो अज्ञानता थी वह मिट जाता  है । अज्ञान मिट जाने से सुख का आभास होता है सभी प्रकार के भय समाप्त हो जाते हैं परन्तु भक्ति तो ज्ञान से कहीं अधिक विलक्षण है। उदाहरणार्थ जैसे अज्ञानतावश एक अज्ञानी मनुष्य को नोटो की गड्डी मिलती है और वो ये नहीं समझ पा रहा था कि ये क्या है उसने कभी रुपए देखे ही नहीं थे, अब वो परेशान कि ये क्या है तब किसी ज्ञानी मनुष्य ने उसे समझाया कि ये रूपयो अथवा नोटो की गड्डी है अब उस अज्ञानी का जो उस गड्डी के प्रति जो अज्ञान, अनजानापन था वह मिट गया उसने जान लिया कि ये रुपये हैं परन्तु उसे ये रुपये है यह ज्ञान हो जाने पर भी उन रुपयो को प्राप्त करने का लोभ पैदा नहीं हुआ यदि उसे ये पता चल जाता कि इन रुपयो के बदले में संसार की बहुत सारी अच्छी - अच्छी वस्तुओं की प्राप्ति होती है तो तत्काल उसे उन रुपयो के प्रति लोभ पैदा हो जाता और ये लालच प्रतिदिन बढ़ता ही जाता। वस्तु के आकर्षण में जो रस है वह रस वस्तु के ज्ञान में नहीं है। ज्ञान का रस तो स्वयं जीव ही लेता है परन्तु भक्ति का रस प्रेम का रस परमात्मा स्वयं लेते हैं, भगवान ज्ञान के नहीं प्रेम के आधीन हो जाते हैं, इस लिए भक्ति ज्ञान से कहीं अधिक विलक्षण है।


भक्ति मार्ग 


भक्ति मार्ग पर संक्षेप में चर्चा की गई, भक्ति मार्ग ज्ञान मार्ग से सुलभ है ।भगवत प्राप्ति जितनी भक्ति से सुलभ है उतनी ज्ञान से, योग से, तप से नहीं है । भक्ति मार्ग पर चलने से भक्त का भगवान योगक्षेम वहन करते हैं।

भगवान अर्जुन से कहते हैं -

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्ताननां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।

भगवान कहते हैं कि जो मेरे अनन्य भक्त मेरा ही चिन्तन करते हुए भलिभाँति मेरी उपासना करते हैं , ऐसे जो निरन्तर मुझमे लगे हुए मेरे भक्त हैं, मैं उनका योगक्षेम वहन करता हूँ अर्थात मैं हर समय अपने भक्त के साथ रहकर उसकी रक्षा करता हूँ। अप्राप्त की प्राप्ति करता हूँ और जो मेरे भक्त को प्राप्त है उसकी रक्षा करता हूँ। भगवान ने ऐसा केवल अपने भक्त के लिए ही कहा है   ज्ञानी तथा तपस्वी एवं योगी के लिए नहीं कहा ।

भक्ति मार्ग ज्ञान मार्ग से इस लिए सुलभ है क्योंकि ज्ञान मार्ग में बड़े कठिन नियम है जैसे -

1- विवेक,
2- वैराग्य,
3- शमादि षटसम्पत्ति - शम, दम, श्रद्धा, उपरति, तितिक्षा, और समाधान
4- मुमुक्षता,
5- श्रवण,
6- मनन,
7- निदिध्यासन, और
8- तत्वपदार्थसंशोधन 

ब्रह्मज्ञान की  दीक्षा लेने से पहले इन आठो नियमो का पालन करना अनिवार्य है। यही ब्रह्मज्ञान की प्रचलित प्रक्रिया है ,इस प्रक्रिया को पूरा किये बिना ब्रह्मज्ञान के मार्ग में दाखिला नहीं हो सकता । कुछ धन के लोभी बाबा अपने शिष्यो को ये बात नहीं बताते उनका कहना है कि मन कहीं भी जाय तुम तो सिर्फ आँखे बन्द करके बैठे रहो और भोले भाले शिष्य उनकी बातों में आकर बर्बाद हो जाते हैं। यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि प्राकृत मन द्वारा की गई साधना भी प्राकृत ही है। रामचरित्र मानस में तुलसी दास जी लिखते हैं कि -

गो गोचर जहँ लगि मन जाई।
सो सब माया जानेहु भाई।।

कुछ महात्मा ऐसा भी कहते हैं कि जैसा कहा है वैसा ही करो हम गारन्टी लेते हैं कि आपको हम परमधाम पहुँचा देंगे । यह बात पूरी तरह मन में बसा लो कि चाहें ज्ञान मार्ग हो भक्ति मार्ग हो या कर्म मार्ग हो ठीक ठीक तरह से साधना तो करनी ही पड़ेगी । बिना साधना किए कोई महात्मा या स्वयं भगवान भी हमारा उद्धार नहीं कर सकते।