भक्ति मार्ग-
साधक चाहे कर्म मार्ग का हो, ज्ञान मार्ग का हो, चाहे भक्ति मार्ग का हो, चाहे किसी भी मार्ग का साधक हो उस साधक को त्रिगुणात्मक माया प्रकृति को जीतकर ही परमात्मा तक पहुँच सकता है यह वचन अटल सत्य है । शास्त्र कहते हैं कि -
" भयं द्वितीयाभिनिवेशतः स्यादीशादपेतस्य विपर्ययोऽस्मृतिः "
कृष्ण बहिर्मुख जीव कहँ, माया करति आधीन।
ताते भूल्यो आप कहँ, बन्यो विषय - रस - मीन।।
तात्पर्य यह है कि जीव अनादिकाल से अपने स्वामी परमात्मा से बिमुख है अतएव माया ने अवसर पाकर जीवात्मा को पूर्णरूप से दबोच लिया और पूर्णतः जीव को अपने वश में कर लिया। परिणामस्वरूप जीव स्वयं को देह (शरीर) मानने लगा तथा तत्काल संसारी विषयो में आसक्त हो गया अब चाहे किसी भी मार्ग का साधक हो उसे त्रिगुणात्मक माया प्रकृति को जीतकर ही परमात्मा को प्राप्त करना होगा क्योंकि ये त्रिगुणात्मक माया प्रकृति ही ईश्वर प्राप्ति में सबसे बड़ी बाधा है। माया प्रकृति बहुत बड़ी शक्ति है, बड़ी बड़ी हस्तियां ब्रह्मा शंकर भी इस माया से डरते हैं । रामायण कहती है कि -
सिव चतुरानन जेहि डेराही।
अपर जीव केहि लेखे माही।।
केवल भक्ति से ही इस प्रचण्ड माया को जीता जा सकता है अन्य किसी साधन से इस माया को नहीं जीत सकते हैं।
त्रिगुणात्मक माया प्रकृति परमात्मा की शक्ति है और परमात्मा की शक्ति पर परमात्मा ही विजय पा सकते हैं परमात्मा के अतिरिक्त किसी में भी इतनी हिम्मत नहीं है जो इस त्रिगुणात्मक माया प्रकृति पर विजय प्राप्त कर सके। परन्तु इस विषय पर भी विचार करना आवश्यक है कि कितने ही भक्तो ने इस त्रिगुणात्मक माया प्रकृति पर विजय प्राप्त करके ईश्वर को प्राप्त किया है ईश्वर को जाना है फिर उन्होने कैसे इस प्रचण्ड माया को जीत लिया जिस माया से ब्रह्मा, शंकर भी भयभीत होते हैं। यह माया प्रकृति परमात्मा की शक्ति होने से परमात्मा की ही बराबर शक्तिशाली है तथा परमात्मा की आज्ञा से उनकी प्रेरणा से ही यह माया प्रकृति अपना कार्य करती है। इसका सीधे - सीधे मतलब यह निकला यदि किसी भी कारण से हमारी मित्रता ईश्वर से हो जाये तो हम बड़ी आसानी से इस माया प्रकृति पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। तुलसीदास जी ने रामचरित्र मानस में लिखा है कि -
जो माया सब जगहि नचावा।
जासु चरित्र लखि काहु न पावा।।
सोई प्रभु भ्रू बिलास खगराजा।
नाच नटी इव सहित समाजा।।
जो माया सारे संसार को नचाती है जिसका चरित्र कोई जान ही नहीं पाया वही माया अपने परिवार सहित परमात्मा के एक इशारे पर नटी की तरह नाचती है और परमात्मा की आज्ञा की प्रतीक्षा करती है। अब हम इस उलझन में पड़ गये कि न तो हम भगवान को जीत सकते हैं और न माया को ही जीत सकते हैं फिर क्या करे ?
त्रिगुणात्मक माया प्रकृति जीव के ईश्वर प्राप्ति मार्ग में महान बाधक है क्योंकि यह त्रिगुणात्मक माया प्रकृति परमात्मा और जीव के बीच स्थित है जिस कारण से मायाधीन जीव पर त्रिगुणात्मक माया प्रकृति की छाया पड़ रही है और करोड़ो प्रयत्न करने पर भी जीवात्मा को परमात्मा का दर्शन नहीं हो रहा। अब हमें ऐसा प्रयास करना चाहिए जिससे जीव माया रूपी भवसागर को पार करके परमात्मा तक पहुँच जाए जो कि असम्भव सा लगता है। यह असम्भव सम्भव कैसे हो इस पर कुछ विचार करते हैं। वेदशास्त्र ,पुराण , गीता, रामायण तथा महापुरुष कहते हैं कि यह त्रिगुणात्मक माया प्रकृति परमात्मा की शक्ति है और यह परमात्मा की ही आज्ञा मानती है जीव का माया पर वश नहीं चलता। स्वयं परमात्मा ही अपनी कृपा से जीवात्मा को पूर्णरूप से इस त्रिगुणात्मक माया प्रकृति से बन्धनमुक्त कर सकते हैं यही अटल सत्य है। भगवत गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि -
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।
भगवान कहते हैं कि मेरी यह माया दैवी गुणमयी माया है और बड़ी दुरत्यय है अर्थात इससे पार पाना अत्यन्त कठिन है। जो जीवात्मा केवल मेरे ही शरण होते हैं वे जीवात्मा ही इस माया को तर जाते हैं अर्थात जो जीवात्मा पूर्णरूप से मेरी ही शरण में आ जाते हैं उस मेरे ही शरणागत जीवात्मा को स्वयं मैं इस त्रिगुणात्मक माया प्रकृति से बन्धनमुक्त करके अपने लोक की प्राप्ति करा देता हूँ। अतः निष्कर्ष यह निकला कि परमात्मा की कृपा से ही जीवात्मा माया को पार करके परमात्मा को प्राप्त कर सकता है।
साधक चाहे कर्म मार्ग का हो, ज्ञान मार्ग का हो, चाहे भक्ति मार्ग का हो, चाहे किसी भी मार्ग का साधक हो उस साधक को त्रिगुणात्मक माया प्रकृति को जीतकर ही परमात्मा तक पहुँच सकता है यह वचन अटल सत्य है । शास्त्र कहते हैं कि -
" भयं द्वितीयाभिनिवेशतः स्यादीशादपेतस्य विपर्ययोऽस्मृतिः "
कृष्ण बहिर्मुख जीव कहँ, माया करति आधीन।
ताते भूल्यो आप कहँ, बन्यो विषय - रस - मीन।।
तात्पर्य यह है कि जीव अनादिकाल से अपने स्वामी परमात्मा से बिमुख है अतएव माया ने अवसर पाकर जीवात्मा को पूर्णरूप से दबोच लिया और पूर्णतः जीव को अपने वश में कर लिया। परिणामस्वरूप जीव स्वयं को देह (शरीर) मानने लगा तथा तत्काल संसारी विषयो में आसक्त हो गया अब चाहे किसी भी मार्ग का साधक हो उसे त्रिगुणात्मक माया प्रकृति को जीतकर ही परमात्मा को प्राप्त करना होगा क्योंकि ये त्रिगुणात्मक माया प्रकृति ही ईश्वर प्राप्ति में सबसे बड़ी बाधा है। माया प्रकृति बहुत बड़ी शक्ति है, बड़ी बड़ी हस्तियां ब्रह्मा शंकर भी इस माया से डरते हैं । रामायण कहती है कि -
सिव चतुरानन जेहि डेराही।
अपर जीव केहि लेखे माही।।
केवल भक्ति से ही इस प्रचण्ड माया को जीता जा सकता है अन्य किसी साधन से इस माया को नहीं जीत सकते हैं।
त्रिगुणात्मक माया प्रकृति परमात्मा की शक्ति है और परमात्मा की शक्ति पर परमात्मा ही विजय पा सकते हैं परमात्मा के अतिरिक्त किसी में भी इतनी हिम्मत नहीं है जो इस त्रिगुणात्मक माया प्रकृति पर विजय प्राप्त कर सके। परन्तु इस विषय पर भी विचार करना आवश्यक है कि कितने ही भक्तो ने इस त्रिगुणात्मक माया प्रकृति पर विजय प्राप्त करके ईश्वर को प्राप्त किया है ईश्वर को जाना है फिर उन्होने कैसे इस प्रचण्ड माया को जीत लिया जिस माया से ब्रह्मा, शंकर भी भयभीत होते हैं। यह माया प्रकृति परमात्मा की शक्ति होने से परमात्मा की ही बराबर शक्तिशाली है तथा परमात्मा की आज्ञा से उनकी प्रेरणा से ही यह माया प्रकृति अपना कार्य करती है। इसका सीधे - सीधे मतलब यह निकला यदि किसी भी कारण से हमारी मित्रता ईश्वर से हो जाये तो हम बड़ी आसानी से इस माया प्रकृति पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। तुलसीदास जी ने रामचरित्र मानस में लिखा है कि -
जो माया सब जगहि नचावा।
जासु चरित्र लखि काहु न पावा।।
सोई प्रभु भ्रू बिलास खगराजा।
नाच नटी इव सहित समाजा।।
जो माया सारे संसार को नचाती है जिसका चरित्र कोई जान ही नहीं पाया वही माया अपने परिवार सहित परमात्मा के एक इशारे पर नटी की तरह नाचती है और परमात्मा की आज्ञा की प्रतीक्षा करती है। अब हम इस उलझन में पड़ गये कि न तो हम भगवान को जीत सकते हैं और न माया को ही जीत सकते हैं फिर क्या करे ?
त्रिगुणात्मक माया प्रकृति जीव के ईश्वर प्राप्ति मार्ग में महान बाधक है क्योंकि यह त्रिगुणात्मक माया प्रकृति परमात्मा और जीव के बीच स्थित है जिस कारण से मायाधीन जीव पर त्रिगुणात्मक माया प्रकृति की छाया पड़ रही है और करोड़ो प्रयत्न करने पर भी जीवात्मा को परमात्मा का दर्शन नहीं हो रहा। अब हमें ऐसा प्रयास करना चाहिए जिससे जीव माया रूपी भवसागर को पार करके परमात्मा तक पहुँच जाए जो कि असम्भव सा लगता है। यह असम्भव सम्भव कैसे हो इस पर कुछ विचार करते हैं। वेदशास्त्र ,पुराण , गीता, रामायण तथा महापुरुष कहते हैं कि यह त्रिगुणात्मक माया प्रकृति परमात्मा की शक्ति है और यह परमात्मा की ही आज्ञा मानती है जीव का माया पर वश नहीं चलता। स्वयं परमात्मा ही अपनी कृपा से जीवात्मा को पूर्णरूप से इस त्रिगुणात्मक माया प्रकृति से बन्धनमुक्त कर सकते हैं यही अटल सत्य है। भगवत गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि -
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।
भगवान कहते हैं कि मेरी यह माया दैवी गुणमयी माया है और बड़ी दुरत्यय है अर्थात इससे पार पाना अत्यन्त कठिन है। जो जीवात्मा केवल मेरे ही शरण होते हैं वे जीवात्मा ही इस माया को तर जाते हैं अर्थात जो जीवात्मा पूर्णरूप से मेरी ही शरण में आ जाते हैं उस मेरे ही शरणागत जीवात्मा को स्वयं मैं इस त्रिगुणात्मक माया प्रकृति से बन्धनमुक्त करके अपने लोक की प्राप्ति करा देता हूँ। अतः निष्कर्ष यह निकला कि परमात्मा की कृपा से ही जीवात्मा माया को पार करके परमात्मा को प्राप्त कर सकता है।
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