ईश्वर प्राप्ति हेतु शरणागति ही वो ब्रह्मास्त्र है जिसके बिना जीव ईश्वर प्राप्ति का अपना लक्ष्य नहीं पा सकता है। शरणागति केवल मन को ही करनी है और मन पर अनादिकाल से त्रिगुणात्मक माया प्रकृति का पक्का रंग चढ़ा हुआ है ऐसा मन भगवान में नहीं लगेगा ऐसे में हमें गुरु की आवश्यकता है, जो अपनी कृपा से हमारे गन्दे मन को परमात्मा में लगाने में मदद करें। महापुरुष का संग तो आवश्यक है ही और ऐसा कोई महापुरुष दूर दूर तक नजर नहीं आ रहा जो केवल ईश्वर सम्बन्धी ही बात करे इस लिये समस्या बहुत जटिल है। इस स्थिति से निपटने के लिए भगवान के दरवाजे पर ही दस्तक देनी चाहिए और एकाग्र मन से प्रार्थना करनी चाहिए कि हे प्रभु आप ही निराकार हैं आप ही साकार हैं आप किसी के पुत्र बनते हैं तो किसी के पिता बनते हैं ,किसी के मित्र बनते हैं तो किसी के गुरु भी बने हैं, मैं सब ओर से निराश होकर आपके पास आया हूँ आप या तो किसी अपने जैसे गुरु के पास मुझे भेज दें या फिर आप स्वयं ही मेरे गुरु बन जायें।
जैसे बन्जर भूमि में सैंकड़ों साल से कुछ भी अनाज पैदा नहीं हुआ तो उस बन्जर भूमि में यदि हम अनाज उगाना चाहें तो हमें बड़ी मेहनत करनी पड़ेगी, प्रारम्भ में इच्छा न होते हुए भी उस भूमि पर हल चलाना, पानी देना, खाद डालना ये सब करना होगा फिर भी गारन्टी नहीं कि कामयाबी मिलेगी ही, लेकिन हमें निराश नहीं होना है, बार-बार मेहनत करेंगे तो एक दिन कामयाबी मिलेगी ही। ठीक इसी प्रकार अनादिकाल से हमारे अन्तःकरण में त्रिगुणात्मक माया प्रकृति का मैल चढ़ा हुआ है, ऐसे गन्दे अन्तःकरण में एक पल के लिए भी ईश्वर सम्बन्धी बातें नहीं ठहर सकती, ऐसी दशा में हमें इच्छा न होते हुए भी भगवान की कथा, उनकी लीला पढ़नी हैं, सुननी हैं, सुनानी हैं। रामायण कहती है कि -
बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मौह न भाग।
मौह गये बिनु रामपद होई न दृढ अनुराग।।
ईश्वर की लीलाऐं कथा, सतसंग इच्छा न होते हुए भी लगातार सुनने से हमारे अन्तःकरण में हलचल होने लगती है।
जैसे बन्जर भूमि में सैंकड़ों साल से कुछ भी अनाज पैदा नहीं हुआ तो उस बन्जर भूमि में यदि हम अनाज उगाना चाहें तो हमें बड़ी मेहनत करनी पड़ेगी, प्रारम्भ में इच्छा न होते हुए भी उस भूमि पर हल चलाना, पानी देना, खाद डालना ये सब करना होगा फिर भी गारन्टी नहीं कि कामयाबी मिलेगी ही, लेकिन हमें निराश नहीं होना है, बार-बार मेहनत करेंगे तो एक दिन कामयाबी मिलेगी ही। ठीक इसी प्रकार अनादिकाल से हमारे अन्तःकरण में त्रिगुणात्मक माया प्रकृति का मैल चढ़ा हुआ है, ऐसे गन्दे अन्तःकरण में एक पल के लिए भी ईश्वर सम्बन्धी बातें नहीं ठहर सकती, ऐसी दशा में हमें इच्छा न होते हुए भी भगवान की कथा, उनकी लीला पढ़नी हैं, सुननी हैं, सुनानी हैं। रामायण कहती है कि -
बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मौह न भाग।
मौह गये बिनु रामपद होई न दृढ अनुराग।।
ईश्वर की लीलाऐं कथा, सतसंग इच्छा न होते हुए भी लगातार सुनने से हमारे अन्तःकरण में हलचल होने लगती है।
No comments:
Post a Comment