शरणागति किसको करनी है। आत्मा के पास एक भौतिक शरीर है, कर्मइंद्रिया, ज्ञानइंद्रिया है ,मन है, बुद्धि है, इनमें से किसको शरणागति करनी है। हमने स्थूल शरीर, इंद्रियां, बुद्धि भगवान को अर्पित कर दी तो क्या वास्तव में शरणागति हो जायेगी, नहीं क्योंकि सबसे बड़ी बीमारी तो हमारा मन है, अतः मन को ही शरणागति करनी है। क्योंकि मन ही बन्धन और मुक्ति का कारण है। अब समस्या यह है कि ये मन त्रिगुणात्मक माया प्रकृति की सन्तान है और अनादि काल से इस मन पर माया का मैल चढ़ा हुआ है तो ऐसे में मन को भगवान के शरणागत करना असम्भव सा लगता है, क्योंकि जो भी आत्मा के पास है - जैसे इंद्रिया, मन, बुद्धि इनसबका निर्माण माया से ही हुआ है, इन इंद्रियों, मन, बुद्धि का सेवाकर्म केवल त्रिगुणात्मक माया प्रकृति का एरिया ही है, माया से परे इनकी पहुँच नहीं है और परमात्मा माया से परे है। ऐसे में जो इंद्रियां, मन, बुद्धि आत्मा के पास हैं उनसे की गई साधना असली साधना नहीं है।
मन को माया और माया वाले ही अति प्रिय लगते हैं मायाधीन मन को भगवान कभी अच्छे नहीं लगेगें जैसे एक शराबी को दूध अच्छा नहीं लगता। अब ऐसे में जीव को तत्वज्ञान का होना अति आवशयक है, तभी जीवात्मा समझ पायेगा कि किधर जाने में उसका लाभ है । यदि जीवात्मा को संसार का आश्रय मिल जाय तो वो भगवान का आश्रय छोड़ देगा और यदि भगवान का आश्रय मिल जाये तो तत्काल संसार का छोड़ देगा एक तो छूटेगा ही दोनों रंग एक साथ नहीं चढ़ सकते हैं। ऐसे में गुरु की आवश्यकता तो है। अब समस्या है कि गुरु कहाँ खोजे। किसी के बहकावे में आकर बिना सोचे समझे हम गुरु के पास चले गए बाद में पता चला कि महाराज जी हमसे भी कहीं अधिक माया में फंसे हुए हैं, तो हमारा तो ये मानव जीवन ही बर्बाद होगया। हमारे वेदों ने गुरु की पहचान बताई है कि :-
"तद्विज्ञानार्थ स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्"
ये वेदमन्त्र बता रहा है कि गुरु शास्त्र वेदों का ज्ञाता हो साथ ही ब्रह्मनिष्ठ हो। ये दोनों शर्ते यदि कोई सन्तमहात्मा पूरी करता है तो तत्काल उसकी शरण में चले जाना चाहिए।
मन को माया और माया वाले ही अति प्रिय लगते हैं मायाधीन मन को भगवान कभी अच्छे नहीं लगेगें जैसे एक शराबी को दूध अच्छा नहीं लगता। अब ऐसे में जीव को तत्वज्ञान का होना अति आवशयक है, तभी जीवात्मा समझ पायेगा कि किधर जाने में उसका लाभ है । यदि जीवात्मा को संसार का आश्रय मिल जाय तो वो भगवान का आश्रय छोड़ देगा और यदि भगवान का आश्रय मिल जाये तो तत्काल संसार का छोड़ देगा एक तो छूटेगा ही दोनों रंग एक साथ नहीं चढ़ सकते हैं। ऐसे में गुरु की आवश्यकता तो है। अब समस्या है कि गुरु कहाँ खोजे। किसी के बहकावे में आकर बिना सोचे समझे हम गुरु के पास चले गए बाद में पता चला कि महाराज जी हमसे भी कहीं अधिक माया में फंसे हुए हैं, तो हमारा तो ये मानव जीवन ही बर्बाद होगया। हमारे वेदों ने गुरु की पहचान बताई है कि :-
"तद्विज्ञानार्थ स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्"
ये वेदमन्त्र बता रहा है कि गुरु शास्त्र वेदों का ज्ञाता हो साथ ही ब्रह्मनिष्ठ हो। ये दोनों शर्ते यदि कोई सन्तमहात्मा पूरी करता है तो तत्काल उसकी शरण में चले जाना चाहिए।
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ReplyDelete🙏🏻
ReplyDeleteप्रभु जी भी निभाते अगर सच्चे गुरु की भूमिका यदि पूर्ण विश्वास ये से नाता जोड़ा जाए तो।
https://prabhusharanagti.blogspot.com/?m=1